डॉ कविता भट्ट |
डॉ0 कविता भट्ट
दर्शनशास्त्र विभाग,हेमवती नन्दन बहुगुणा
गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर ‘गढ़वाल' उत्तराखण्ड
1-जटिल
प्रश्न पर्वतवासी का
शिवभूमि बनी शवभूमि अहे!
मानव–दम्भ के प्रासाद बहे।
दसों–दिशाएँ स्तब्ध, मूक खड़ी,
विलापमय काली क्रूर प्रलय घड़ी।
क्रन्दन की निशा–उषा साक्षी बनी,
शम्भु तृतीय नेत्र की जल–अग्नि।
पुष्प–मालाओं के ढोंगी अभिनन्दन,
असीम अभिलाषाओं के झूठे चन्दन।
न मुग्ध कर सके शिव–शक्ति को,
तरंगिणी बहाती आडंबर–भक्ति को।
नि:शब्द हिमालय निहार रहा,
पावन मंत्र अधरों के छूट गये।
प्रस्तर और प्रस्तर खंड बहे,
सूने शिव के शृंगार रहे।
जहाँ आनन्द था,
सहस्त्र थे स्वप्न,
विषाद,
बहा ले गया, शेष स्तम्भन।
कुछ शव भूमि पर निर्वस्त्र पड़े,
अन्य कुक्कुर मुख भोजन बने,
भोज हेतु काक विवाद करते,
गिद्ध कुछ शवों पर मँडराते।
अस्त–व्यस्त और खंडहर,
केदार–भूमि में अवशेष जर्जर।
कोई कह रहा,
था यह प्राकृत,
और कोई धिक्कारे मानवकृत।
आज प्रकृति ने व्यापारी मानव को,
दण्ड दिया दोहन का प्रकुपित हो,
उसकी ही अनुशासनहीनता का।
कौन उत्तरदायी इस दीनता का?
नाटकीयता द्रुतगति के उड़न खटोलों
से,
विनाश देखा नेताओं ने अन्तरिक्ष डोलों
से,
दो–चार श्वेतधारियों के रटे हुए भाषण,
दिखावे के चन्द मगरमच्छ के रुदन।
इससे क्या?
मंथन–गहन चिंतन के विषय,
चाहिए विचारों के स्पंदन,
दृढ़–निश्चय।
क्योंकि जटिल प्रश्न पर्वतवासी का
बड़ा है,
जो देवभूमि–श्मशान पर विचलित खड़ा है।
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2-विवश
व्यवस्था
समय की गति में बहती रही है,
दलालों के हाथों की लँगड़ी व्यवस्था
निशिदिन कहानी कहती रही है,
बैशाखियों से कदमताल करती
व्यवस्था।
सुना है -अब तो गूँगी हुई है,
मूक पीड़ाओं पर मुस्कुराया करती
व्यवस्था।
बहुत चीखता रहा आए दिन भीड़ की ध्वनि में,
फिर भी,
सुनती नहीं निर्लज्ज बहरी व्यवस्था।
विषमताओं पर अट्टाहास,
कभी ठहाके लगाती,
समाचार–पत्रों में कराहा करती झूठी व्यवस्था।
यह नर्तकी बेच आई अब तो घूँघट भी
अपना,
प्रजातन्त्र–राजाओं के ताल पर ठुमकती व्यवस्था।
चन्द कौड़ियों के लिए कभी इस हाथ,
कभी उस हाथ पत्तों- सी खेली जाती व्यवस्था।
बहुत रोता रहा था,
वह रातों को चिंघाड़कर,
झोपड़े जला,
दिवाली मनाया करती व्यवस्था।
रात सारी डिग्रियाँ जला डाली उसने
घबराए हुए,
देख आया था,
नोटों से हाथ मिलाती व्यवस्था।
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ई-मेल-mrs.kavitabhatt@gmail.com
डॉ कविता भट्ट की दोनों कवितायेँ उनकी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए पाठक को फिर से उस भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति आगाह करती हैं जिसको वह अच्छी तरह से पहचानता है और यह भी जानता है कि उसकी गिरफ्त बहुत मजबूत है। कई बार तो लगता है कि हम अब खुद इस व्यवस्था का अभिन्न अंग बन चुके हैं और इसको बनाये रखना चाहते हैं। बहरहाल, कवि का धर्म है कविता करना और डॉ कविता ने इस धर्म का बखूबी निर्वाह किया है क्योंकि वे इस त्रासदी की चश्मदीद रही हैं। बधाई और शुभकामनायें स्वीकार करें !
ReplyDeleteवर्त्तमान परिस्थिति का सशक्त चित्र प्रस्तुत करती रचनाएँ हैं ...बहुत बहुत बधाई कविता जी !
ReplyDeleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
चाहिए विचारों के स्पंदन, दृढ़–निश्चय।
ReplyDeleteक्योंकि जटिल प्रश्न पर्वतवासी का बड़ा है,
जो देवभूमि–श्मशान पर विचलित खड़ा है।
सशक्त प्रभावशाली चिंतन और उसकी अभिव्यक्ति भी ....!!
jatil prashan paratvaasi ka, evm vivsh vybastha kavita achchi hai ek chitra prastut kiya hai dhanyabad
ReplyDeleteआज की व्यवस्था पर करारी चोट..बहुत बधाई कविता जी !
ReplyDeleteदोनों ही सामयिक कवितायें, सशक्त संप्रेषण
ReplyDeleteझूठे श्रद्धा-प्रेम ए कुपित हैं तीर्थ-धाम |
ReplyDeleteइसी लिये व्रत और सब पूजा है नाकाम ||
छोड़ के चाहत फलों की पूजें हरी निष्काम |
तब प्रसन्न हों सभी से कण कण व्यापी राम ||
हरि से सच्ची प्रीति का, कितना हुआ अभाव |
ReplyDeleteइसी लिये हरी-कृपा का, पडता नहीं प्रभाव ||
एक संवेदनशील कवयित्री की संवेदना का सोता कलम के माध्यम से फूट पड़ा है । सामयिक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteप्रभावपूर्ण सामयिक कविताएं......बधाई!
ReplyDeleteविनाश देखा नेताओं ने अन्तरिक्ष डोलों से,
ReplyDeleteदो–चार श्वेतधारियों के रटे हुए भाषण,
दिखावे के चन्द मगरमच्छ के रुदन।
.....कविताजी की कविता में यथार्थ के प्रभावशाली चित्रण के साथ वर्तमान व्यवस्था पर करारा व्यंग्य भी है |
बेहद खुबसूरत कवितायें. बार-बार पढने को जी चाहता है..बधाईयाँ
ReplyDeleteसोचने पर मजबूर करती रचनाएँ...बधाई...|
ReplyDeleteप्रियंका गुप्ता
सशक्त एवम प्रभावशाली रचनाएँ , बहुत बधाई आपको कविता जी ।
ReplyDeleteAdwitiya didi. kavitayen karuna se ot prot karne wali or tatkalik paristhitiyon ka yatrartha chitran karti hai. pehli waali to adbhut hai. sadhu sadhu
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