तुम ग्लेशियर हो !
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
हे प्रियवर !
परम आत्मीय
जानता हूँ मैं-
आहत होता है मन ,
जब कोई अपना
दे जाता है फाँस की चुभन ।
फाँस का रह –रहकर टीस देना
जो लोग तुम्हें जान नहीं पाते,
इसलिए वे पहचान नहीं पाते
कि घाटियों में ठोकरें खाकर
नीचे गिरते झरने
बल खाती साँप –सी विरल जल की सरिताएँ
कितनों को सुख पहुँचाते हैं !
लेकिन सुखों का स्वाद लेने वाले
इसे कब समझ पाते हैं -
ग्लेशियर का पिंघलना
घाटियों से बूँद-बूँद जल का रिसकर
धारा में बदलना
नदी बनकर सागर तक का सफ़र पूरा करना ।
तुम तो ग्लेशियर हो !
जो ग्लेशियर को नहीं जानते
इस तरह जो ग्लेशियर को खोते हैं
वे नदी के भी सगे नहीं होते हैं ।
उनसे अपनेपन की आशा करना
है आकाश में फूलों का खिलना ,
दो किनारों का आपस में मिलना ।
ग्लेशियर !
जब तुम किसी ताप से
पिंघलकर बहो
किसी से अपने मन की पीर ज़रूर कहो
जब किसी से ( वह भी कोई आत्मीय ही होगा)
अपनी पीर कहोगे
कुछ तो मिटेगा ताप
फिर इतना नहीं बहोगे
तभी बच पाओगे
अपनी शीतलता से –
आने वाली सदी तक बने रहोगे ।
-0-
aap ne kya pyari tula ki hai .padh ke aanad aaya
ReplyDeleteअपनी पीर कहोगे
कुछ तो मिटेगा ताप
फिर इतना नहीं बहोगे
तभी बच पाओगे
अपनी शीतलता से –
आने वाली सदी तक बने रहोगे ।
kavita ka itna sunder ant kam hi dekhne ko milta hai
aap ko koti koti badhai
saader
rachana
लाजवाब किस तरह से मन के भाव उड़ेले हैं .कविता और चित्रों का सामंजस्य बढ़िया लगा
ReplyDelete"जब किसी से
ReplyDeleteअपनी पीर कहोगे
कुछ तो मिटेगा ताप
फिर इतना नहीं बहोगे"
जब किसी से
अपनी पीर कहोगे
कुछ तो मिटेगा ताप
फिर इतना नहीं बहोगे
बहुत ही सुन्दर कविता... एकदम सच कहा आपने ... "पीर कहोगे ... तो इतना नहीं बहोगे."... वो कहते हैं न ! ....पीर बांटने से आधी होती है और सुख दुगना ....सुख हो या दुःख बांटें जरूर
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteया देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
साहित्यकार-6
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
आहत होता है मन
ReplyDeleteजब कोई अपना दे जाता है
फाँस की चुभन ।
............
हाँ और वो फाँस
इतनी गहरी चुभती है
कि कुरेद डालती है
बीता वक्त और बीती यादें
जिन यादों में भी
गहरे जख्म कि सिवा कुछ भी न था
उसी जख्म को और कुरेदती है
ये फाँसे
और अब वो जख्म नासूर बन चुका है
इतना बड़ा नासूर कि
अब कोई नदी, कोई समुद्र के रास्ते चलना भी
भूल जाता है ग्लेशियर बस अब तो
वो पिघलकर भरना भी नहीं चाहता
सच तो ये है कि वो अब पिघलना भी नहीं चाहता
पर क्या करे पिघलना तो उसकी नियति है ना
भला नियति के आगे किसी के चली है कभी
तो क्या करे बेचारा ग्लेशियर
अच्छा कि अब वो मुक्त हो जाये हमेशा के लिए
और अपनी पिघलने की नियति को बदल डाले
और बन जाये एक ऐसा पत्थर जिस पर कोई असर ही नहीं होता...
बहुत गज़ब...वाह!
ReplyDeleteभावना बहिन एक गीतकार ( शायद समीर) ने कहा है - जगाभी जीता नहीं है , मैं अभी हारा नहीं हूँ । फ़ैसला होने से पहले हार क्यों स्वीकार कर लूँ॥
ReplyDelete-हम लोग बनावटी हितैषी नहीं हैं , आपकी निराशा को दूर करेंगे । आपके रास्तों पर उजाले का नूर भरेंगे ।
रामेश्वर जी और भावना जी,
ReplyDeleteआपकी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कुछ यूँ कहना चाहती हूँ.....
आहत होता है मन
जब कोई अपना दे जाता है
फाँस की चुभन.........
..............
फाँस की चुभन
कर जाती है सजल नयन
बह जाता है दु:ख सारा
जो कभी था ही न तुम्हारा
आँखों में आई नमी
धो डालती है
आँखो की धूल
फिर तुम नहीं करते
किसी को
पहचानने में भूल
साफ़ हुई आँखो से
तुम ज़्यादा देख पाते हो
सब को पहचान जाते हो.....
हाँ सच है ये कि हो जाती है पहचान
ReplyDeleteपर जब तक पहचान होती है
तब तक हम मिट चुके होते हैं
डूब चुके होते हैं उसकी बनाई
सपनों की दुनिया में
अपाहिज हो जाता है हमारा वज़ूद
बिना उसके
और आदत बन जाती है
उसके साथ जीने की
और उस वक्त उसका इस कदर बेगाना पन?
इतना अविश्वास
इतनी कट्टरता
जीने लायक छोड़ता ही कहाँ
खत्म हो जाती है वो सपनों जैसी दुनिया
और बचते हैं कुछ अवशेष
जिनको चुनना भी किसी को गवारा नहीं होता
कौन बिखरी टूटी साँसों को गले लगाता है
यहाँ जिंदा चलती फिरती लाशों को भी
लोग अपना कहने से कतराते हैं...
बहिन भावना जी और हरदीप जी !आपने तो बहुत अच्छा लिखा है । सबका अपना-अपना अनुभव होता है , आप दोनों ने काम्बोज जी को भी पीछे छोड़ दिया है ।
ReplyDeleteKamoj ji bahut hee sunder kavita hai apki, pad kar laga ki yeh hum sabh ki hi kahani hai.
ReplyDeleteकर देता है सजल नयन !
जो लोग तुम्हें जान नहीं पाते,
इसलिए वे पहचान नहीं पाते
कि घाटियों में ठोकरें खाकर
नीचे गिरते झरने
बल खाती साँप –सी विरल जल की सरिताएँ
कितनों को सुख पहुँचाते हैं !
लेकिन सुखों का स्वाद लेने वाले
इसे कब समझ पाते हैं -
ग्लेशियर का पिंघलना
घाटियों से बूँद-बूँद जल का रिसकर
धारा में बदलना
नदी बनकर सागर तक का सफ़र पूरा करना ।
तुम तो ग्लेशियर हो !
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार प्रस्तुती! बधाई!
ReplyDeleteRespected Sir,"TUM GLACIER HO", bahut sunder kavita hai. Glacier ke tapne aur pighalney ko bahut sundar shabdon mein likha hai.Aap ki kavita parhney ke baad hamara man kuch is tarah kehta hai ki,
ReplyDeletejab milta hai kisi se apnapan
door ho jati har phans ki chubhan
peerh nahin kar pati sajal nayan
glacier ka barhta hai sheetalpan.
From :- Mumtaz & T.H.Khan
बहन मुमताज़ ्जी और सम्मानीय भाई खान साहब !
ReplyDeleteआप दोनों की बात पूरी तरह सही है । मैं तो यही कह सकता हूँ-
जहाँ होता है अपनापन
वहाँ होती ही नहीं चुभन ।
शूल वहाँ बन जाते फूल
आग बनती शीतल चन्दन ।
रामेश्वर काम्बोज
वाह ! वाह ! मज़ा आ गया...। पढ़ रही थी काम्बोज जी की कविता और उसमें भावना जी और हरदीप जी की कविताओं का भी आनन्द उठाने का मौका मिला...। आप तीनों को बहुत बधाई...और आगे भी ऐसी ही खूबसूरत जुगलबन्दी की शुभकामनाएँ...।
ReplyDeleteप्रियंका
मैं सभी का आभारी हूँ । मेरी कविता पर की गई टिण्णियाँ अपने आपमें मेरी कविता से भी बेहतर कविताएँ बन गई हैं । सभी का हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteप्रतीकों के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति अति सुन्दर है |
ReplyDeleteसुधा भार्गव