1-मोक्षद्वार
जमी पहाड़ियों के सामने वसंत का नाम लेने पर,
या बहती नदी के समक्ष झरने का राग छेड़ने पर,
कुछ बूँदें होती हैं, जो सर उठाकर देखती हैं!
यकीनन धूप आने पर पहली भाप उनसे ही उठती होगी..
वे ही पसारती होंगी नभ के सामने भरा पूरा मन,
और स्वरूप बदलकर भी जारी रहती है उनकी यात्रा
फिर बादल बनकर आकाश पर टँगी-सी
गीलेपन को दूधिया बनाकर आसमानी सैलाब बन
टेर सुनती है उसी प्रवाह की, जमे ठहराव की
कोई मुक्ति- सा क्षण आता होगा जब बरसती हैं
बादल से टूटकर फिर बूँद का रूप धर गिरती
है
नदी को फिर अपने आँसुओं से ही सँवारती हैं
फिर वे ही आगे बढ़कर जमाव बिंदु के आमंत्रण पर
सख्त भी होना कबूल करती हैं हिमकणों में
चौरासी नही बस ये बहती उड़ती जमती योनियाँ हैं
वसंत की पुकार पर फिर, मोक्षद्वार जाने को तत्पर
फर्क है बस एक, ये कभी गीलापन छोड़ती नहीं है
बर्फ बादल के बीच भी बूँदें नदी से
मुख मोड़ती नहीं हैं
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2-विसर्जक
एक वृक्ष रचता है महाकाव्य अपने जीवन में
हवा की थपकियों में निबद्ध उसकी सुरीली रागिनी
पत्तों की कलम में होता है, ओस की स्याही
का जोश
हर मौसम के अपने अध्याय हैं, मिट्टी से पगे
बाँकपन से अँगड़ाई लेती डालियों के ताल पर
फूलों का सुरभित काव्यगीत साकार कर
फिर श्रम सार्थक परिपक्व सा निश्चिंत हो
फलों में विरासत के शब्द बीज बोता हुआ
एक वृक्ष प्रथम सृजनकर्ता है, जीवन का
उसकी हरीतिमा में फलित है काव्य सार
जो प्रयत्न से प्राप्त फलों को भी फिर
विलग कर डालियों से, जोगिया हो जाता है
बस फल ही नहीं फिर पतझर में पत्ते भी
और वृक्ष संन्यासी- सा लीलाधर
बनकर
एक वर्ष में एक जीवन का मर्म समझाकर
छोड़ देता है स्वयं को प्रकृति के चिरंतन प्रवाह में
मिट्टी से मिट्टी की यात्रा के जुड़ाव बिखराव में
हर वृक्ष के महाकाव्य का नाम जीवन है
हर वृक्ष के वसंत का नाम पावन है
हर वृक्ष मानव से परे की भाषा का सर्जक है
और वृक्ष ही है जो स्वयं अपना विसर्जक है
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3-वासंती पंचामृत
चेरी ब्लॉसम पर लदे गुलाबी सफेद उमंग के गुब्बारे
चढ़ती बेल पर मुस्काते मधुमालती के मुखड़ों से अलग कहां
दोनों में से ही झांकती है कौतूहल- भरी ललक
दुनिया देखने की, साँस भर जीने
की, महकने की
आसमानी छतरी के नीचे, शहद में डूबी ये खुशियाँ
कितने शिशुओं की किलकारियों- सी गूँजती है
अपनी सर्जक शाख की गोद में पोटली- सी
फिर उमगती नन्हे भ्रमर के आगमन से आतुर
इनका क्षणार्ध वसंत कैसा प्रमुदित प्राकृतिक- सा
चटख सूरज को भी देखकर सीधी आँख से
जीवन सार्थक कर खिर जाती हैं, बीते पड़ावों सी
कोई शोक गीत नहीं बजता, रुदन न आँसू कहीं
बस वसंत अपनी कविता लिखता है डालों पर
और ये लाल गुलाबी खुशियां उसकी रागिनी बन
रंग, रुप, रस, गंध स्वर का बना पंचामृत
सार्थक कर देती है, एक जीवन का होना
पूर्ण कर देती है, एक वसंत का जीना
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अंतरा
करवड़े
हिंदी व मराठी लेखन, श्रव्य साहित्य, बहुभाषी अनुवाद व ध्वनि सेवाओं के क्षेत्र में कार्यरत। लघुकथा, कविता व ललित निबंध सहित अनेक पुस्तकों का प्रकाशन व उनपर तीस से भी अधिक
पुरस्कार। मुख्य रुप से म.प्र. साहित्य अकादमी का ’शब्द साधिका’ सम्मान। विविध राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय
साहित्यिक व अनुवाद कार्यशालाओं में चर्चाकार व शोध पत्र वाचन सहित भारत का
प्रतिनिधित्व। साहित्य व तकनीक के संगम के अंतर्गत ’सुनो लघुकथा’ व ’मन कस्तूरी’ ऑथरेटर परिकल्पना पर ऑडियो पुस्तकें।
आध्यात्मिक, बाल साहित्य व जीवनीपरक लेखन पर नियमित
पॉडकास्ट। पाठ्यक्रम में रचनाएं शामिल। साहित्य के ध्वन्यात्मक स्वरूप व रेडियो लेखन का वृहद अनुभव। अंतर्राष्ट्रीय
स्तर के साहित्य सम्मेलनों की परिकल्पना, प्रबंधन व सफल संचालन का वैविध्यपूर्ण अनुभव। लघुकथा सम्मेलन व महिला साहित्य
सम्मेलनों के नियमित आयोजनों में प्रमुख भूमिका। अखिल भारतीय स्तर के मंचों पर
विधागत व विषय विशेषज्ञ के रुप में नियमित उपस्थिति। अनेक अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से संबद्ध।
वर्तमान में अनुवाद, लेखन व ध्वनि सेवा संस्थान ’अनुध्वनि’ का संचालन।
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति!! एक एक शब्द सौंदर्य में नहाया हुआ...
ReplyDeleteतीनों कविताएं बहुत अच्छी हैं। भाषा और भाव की अभिव्यक्ति बहुत सुंदर है। शब्दों का चयन प्रभावी है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविताएं
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविताएं, आपको बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविताएं, हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteसुंदर भाव लिए हुए सभी कविताएँ!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
बहुत ही सुन्दर कविताएँ।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीया
सादर