भीकम सिंह
1-पुल-सा-
मैं
उद्धत लहरों से
टकराता
किनारों से
बतियाता
बाँहें लचीली
कँधे मजबूत करे
नदी की धारा में
खड़ा है पुल ।
ठीक वैसे ही
मौन
कुछ अनजान
विश्वासों से रीता
पसीने से भीगा
जीवन- धारा में
जिम्मेदारी लेकर
खड़ा हूँ मैं ।
पुल का उतार
पुल का चढ़ाव
पुल का पार
पुल का आर
पुल का कम्पन
पुल की टूटन
यकीन मानों
मेरी ही हैं ये क्रियाएँ ।
-0-
2-मैने सीखा भूगोल
मेरे पिता
छोटे- से
किसान
चाचा-चरवाहा
और ताऊ-बुद्धू
एक ही गली में रहते
एक ही अहाते के पीछे
अपने-अपने
गम-पीते
सपने-जीते
आपसी मसलों को
कभी मुट्ठियाँ बाँधे
कभी मुट्ठियाँ खोले
करते रहते घोल-मोल
उनसे ही सीखा मैने भूगोल ।
सबसे पहले चाचा निकलता
घर से मेरे
सवेरे-सवेरे
मैली धोती
फटा कुर्ता
नंगे पैर
कृश काया लिये
भैंस , कटरों का शोर
भर जाता गली में
गीत की तरह
चाचा गुनते
कटरों और भैंसों का रँभाना
और बुनते दिन का गोल
उनसे ही सीखा मैने भूगोल
।
कि संसाधन होना
अलग बात
और संसाधन जीना
अलग बात
पैरों को पत्थर करने
की कला
जंगलों में
नंगा रहने की मजबूरी
और उसका राज़
नि:संदेह
बहकाने के मंतर
गीदड़ और भेड़ियों में अन्तर
उजड़ते चारागाहों का झोल
उनसे ही सीखा मैने भूगोल
।
सुबह-अँधेरे
पिता मेरे
आधे-नंगे
भले-चंगे
छह फीट
लम्बे
रखते संयम
तय थे नियम
पहले बैल खोलते
फिर जुआ तोलते
फिर
फौलादी उँगलियों
से
उठाते थे हल
तो, लुंगी
कर लेते थे गोल
उनसे ही सीखा मैने भूगोल
।
एक बैल
और बधिया से
कभी फावड़े
कभी हँसिया
से
जोत आते थे खेत
पर हाथ लगती थी
रेत
फक़त रेत
तब-तब
वजह जानते
और मानते
ताकत का जादू
धैर्य रखने का मोल
उनसे ही सीखा मैने भूगोल
।
सफेद कुर्ता
फैंटेदार धोती
एक छोर धोती का
हाथ में थामें
आँखों पर
मोटे फ्रेम का
चश्मा बाँधे
ठक-ठक चाल को
धीमे -धीमे चलता
फिर ताऊ निकलता
गौरवर्णी
मध्यम कद
और चेहरा गोल - मटोल
उनसे ही सीखा मैने भूगोल
।
परिवार उन्हें
सहिष्णु बताता आया
एकता का दर्शन
उन्होंने ही कराया
एक रहने की खातिर
वे करते रहते
गुना-भाग जोड़
पर थी एक मरोड़
उम्रभर
उसी को पाला-पोसा
उनका
उठा-उठाकर गोसा
चिलम भरे था पतरौल
उनसे ही सीखा मैने
भूगोल ।
-0-
3- आजकल
आजकल रातें
लम्बी होने लगी हैं
दीये जल्दी
सो जाते हैं ।
चाँदनी खिली
रहती है देर तक
जुगनू सारे
वहाँ व्यस्त हो जाते
हैं ।
सिरफिरे अँधेरे
आवाज़ देते रहते हैं
जब तक तारे
बुझ नहीं जाते हैं ।
-0-
सार्थक सृजन । बधाई भीकम सिंह जी को। । सभी कविताएँ जीवन के आस- पास की ।
ReplyDeleteशानदार जानदार रचनाएँ 🌹🙏
ReplyDeleteसुंदर, भावपूर्ण व संवेदनात्मक काव्य रचनाओं के लिये बधाई.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर कविताएँ। सृजन के लिए बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविताएं हैं हार्दिक बधाई भीकम सिंह जी 🙏💐
ReplyDeleteतीनों ही रचनाएँ अति सुंदर। ग्रामीण परिवेश में को छू जाता है।
ReplyDeleteअंतिम रचना कमाल
"आजकल रातें
लम्बी होने लगी हैं
दीये जल्दी
सो जाते हैं।"
बहुत-बहुत बधाई आदरणीय भीकम जी
सुंदर रचनाएँ।बधाई भीकम सिंह जी।
ReplyDeleteसुंदर कविताएँ
ReplyDeleteसुंदर, सार्थक सृजन। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteअंतर्मन को छूती बहुत ही सुन्दर रचनाएँ।
ReplyDeleteमैंने उनसे ही सीखा भूगोल...लाजबाब।
हार्दिक बधाई आदरणीय इस अति सुन्दर सृजन हेतु।
सादर
तीनों कविताएँ अपने आप मे बेमिसाल!धन्यकाद आदरणीय पढ़कर बहुत आनन्द आया।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाएँ...बधाई भीकम सिंह जी।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया रचनाएँ,अंतर्मन को छू गईं।
ReplyDeleteमैंने सीखा भूगोल....गज़ब!
हृदय से बधाई आपको आदरणीय भीकम जी।
जिनको मेरी कविताएँ पसन्द आई,उन सभी श्रेष्ठ रचनाकारों का मैं आभार व्यक्त करता हूँ, हार्दिक धन्यवाद ।
ReplyDeleteतीन अलग-अलग भावों को दर्शाती कविताएँ और तीनों ही बहुत सुन्दर , मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
ReplyDeleteअच्छी कविता
ReplyDeleteतीनों कविताएँ सुंदर एवं भावपूर्ण! हार्दिक बधाई आदरणीय भीकम सिंह जी!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित