रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-तूफ़ान
सड़क पर
नामी
या बेनाम सड़क पर
होते
सारे काम सड़क पर
जब
देश लूटता राजा
कोई
करे
कहाँ
शिकायत,
कुर्सी पर कुछ बैठे दाग़ी
एकजुट
हो
करें
हिमायत ;
बेहयाई
नहीं टूटती ,
रोज़ उठें तूफ़ान सड़क पर ।
दूरदर्शनी
बने हुए
इस
दौर के
भोण्डे
तुक्कड़,
सरस्वती
के सब बेटे
हैं घूमते
बनकर
फक्कड़ ;
अपमान
का गरल पी रहा
ग़ालिब का
दीवान सड़क पर ।
खेत
छिने , खलिहान लुटे
बिका
घर भी
कंगाल
हुए ,
रोटी,
कपड़ा, मन का चैन
लूटें
बाज़ ,
बदहाल
हुए ;
फ़सलों
पर बन रहे भवन
किसान लहूलुहान सड़क पर ।
मैली
चादर रिश्तों की
धुलती
नहीं
सूखा
पानी,
दम
घुटकर विश्वास मरा
कसम-सूली
चढ़ी
जवानी;
उम्र
बीतने पर दिया है
प्यार
का इम्तिहान सड़क पर । (8फ़रवरी, 2011)
-0-
2-बीच
सड़क पर
जब-जब
दानव
बीच
सड़क पर
चलकर आएँगे।
किसी
भले
मानुष
के घर को
आग लगाएँगे।
अनगिन
दाग़
लगे हैं इनके
काले दामन पर
लाख देखना –
चाहें
फिर भी
देख न पाएँगे।
कभी जाति
कभी मज़हब
के
झण्डे फ़हराकर
गुण्डे कौर
छीन
भूखों का
खुद खा जाएँगे।
नफ़रत
बोकर
नफ़रत
की ही
फ़सलें काटेंगे
खुली
हाट में
नफ़रत
का ही-
ढेर लगाएँगे।
तुझे
कसम है
हार न
जाना
लंका नगरी में
खो गया
विश्वास
कहाँ से
खोजके लाएँगे।
इंसानों
के
दुश्मन
तो
हर घर में बैठे हैं
उनसे
टक्कर
लेनेवाले-
भी मिल जाएँगे।
-0-
3-इस शहर में
पत्थरों के
इस शहर में
मैं जब से आ गया हूँ ;
बहुत गहरी
चोट मन पर
और तन पर खा गया हूँ ।
अमराई को न
भूल पाया
न कोयल की ॠचाएँ ;
हृदय से
लिपटी हुई हैं
भोर की शीतल हवाएँ ।
बीता हुआ
हर एक पल
याद में मैं
पा गया हूँ ।
शहर लिपटा
है धुएँ
में ,
भीड़ में
सब हैं
अकेले ;
स्वार्थ की है
धूप गहरी
कपट के हैं
क्रूर मेले ।
बैठकर
सुनसान घर
में
दर्द मैं सहला
गया हूँ ।
-0-(04-06-96)
-0-
तीन कविताएँ तीन अलग अलग भावों की अभिव्यंजक हैं,'तूफान सड़क पर'में मूल्यहीन/स्वार्थी राजनीति और समाज पर प्रहार है,दूसरी कविता'बीच सड़क पर'में अराजक होते समाज के चित्र के साथ ही उनसे टक्कर लेते हुए लोगो का संकेत करके सकारात्मक संदेश भी है वहीं तीसरी कविता'इस शहर में' स्वार्थी समाज के मध्य भावुक मन की व्यथा का सहज चित्रण है।आपकी लेखनी को नमन।
ReplyDeleteव्यंग्य का पैनापन वर्तमान की सही ब्याख्या करते हुए और समाज , सत्ता को आइना दिखाते हुए प्रस्तुत हुआ है । अच्छी रचना - बधाई ।
ReplyDeleteतीनों कविताओं में मन की व्यथा जो कहीं राजनीति और समाज में आई स्वार्थपरता अराजकता मानवीय मूल्यें के ह्रास के कारण उत्पन्न हुई है, का बहुत सुंदर चित्रण है।उत्कृष्ट सृजन के लिए हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteअपमान का गरल पी रहा
ग़ालिब का दीवान सड़क पर ।
तो लाजवाब।
आक्रोश व्यंग्य के कितने रंग हैं इनमें। बहुत बधाई आदरणीय।
तीनों ही कवितायें मन पर गहरी छाप छोड़ रही है 'इस शहर' कविता में मन का दर्द बहुत खूबी से उभर रहा है ,हार्दिक बधाई भाई साहब |
ReplyDeleteतूफ़ान/
ReplyDeleteदानव सड़क पर
पत्थरों के इस शहर में
सभी कविताएं अंतस की पीड़ा को सृजित कर रही हैं, हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं आदरणीय भाई साहब जी।
-परमजीत कौर'रीत'
आप सभी का हृदयतल से आभार । आपका एक-एक शब्द मेरे लिए ऊर्जा है।
ReplyDeleteरामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
समाज और शासन को दर्पण दिखलाती बहुत सुंदर, सार्थक और सटीक रचनाएँ, बधाई स्वीकारें आदरणीय!!
ReplyDeleteपीड़ा का गहन भाव अभिव्यक्त करती कविताएँ । सभी कविताएँ अलग अलग रंग लिए हुए । आपको हार्दिक अभिनंदन ।
ReplyDelete"दूरदर्शनी बने हुए
ReplyDeleteइस दौर के
भोण्डे तुक्कड़,
सरस्वती के सब बेटे
हैं घूमते
बनकर फक्कड़ ;
अपमान का गरल पी रहा
ग़ालिब का दीवान सड़क पर।"
- आज के समाज के कटु सत्य को उजागर करती बहुत सुन्दर रचनाएँ! हार्दिक बधाई!
"दूरदर्शनी बने हुए
ReplyDeleteइस दौर के
भोण्डे तुक्कड़,
सरस्वती के सब बेटे
हैं घूमते
बनकर फक्कड़ ;
अपमान का गरल पी रहा
ग़ालिब का दीवान सड़क पर।"
- आज के समाज के कटु सत्य को उजागर करती बहुत सुन्दर रचनाएँ! हार्दिक बधाई!
बेहद शानदार कविताएं
ReplyDeleteतीनों एक से बढ़कर एक
तीन कविताएँ...तीन भाव...पर सभी अपनी पीड़ा से पाठक के दिल पर आघात करते हुए...| बहुत सुन्दर...|
ReplyDeleteमेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें...|
तीनों कविताएँ कटु सत्य को उजागर करती हुई शानदार अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteबधाई आपको !
तीनों कविताओं के भाव मन को गहरे छू गए. बहुत संवेदनापूर्ण ...
ReplyDeleteशहर लिपटा
है धुएँ में ,
भीड़ में
सब हैं अकेले ;
स्वार्थ की है
धूप गहरी
कपट के हैं
क्रूर मेले ।
बधाई काम्बोज भाई.