प्रियंका गुप्ता
1-सराय
लो,
आज
सौंप रही हूँ तुम्हें
खोल
रही हूँ
अपना
नेह-बंधन
मेरे
प्यार के पिंजरे का
ताला
खुला है
जाओ,
खूब
ऊँची परवाज़ भरो
दूर
तक विस्तार करो
अपने
पंखों का
और
जब कभी थक जाना
तो
लौटना नहीं
मैं
तक न सकूँगी तुम्हारी राह,
इंतज़ार
भी नहीं करूँगी
तुम्हारे
लौट आने का;
क्योंकि
तुमने
शायद
कभी
ठीक से देखा ही नहीं;
मैं
बसेरा थी तुम्हारा
कोई
सराय नहीं...।
-0-
2- फ़र्क पड़ता है...
क्या
फ़र्क पड़ता है
कि
मैंने
तुम्हें
कितना प्यार किया;
कि
तुम्हारी एक आवाज़ पर
मैं
कितनी दूर से भागती आई;
क्या
फ़र्क पड़ता है
कि
तुम्हारी एक मुस्कुराहट पर
मैंने
अपने कितने दर्द वारे;
क्या
फ़र्क पड़ता है
कि
तुममें रब को नहीं
मैंने
खुद को देखा;
सच
तो ये है
कि
अब किसी बात से
कोई
फ़र्क नहीं पड़ता;
क्योंकि
तुमको
तो जाना ही था
यूँ
ही हाथ छुड़ाकर
ग़लत
कहा,
हाथ
छोड़कर
पर
सुनो,
जाने
से पहले
अपने
वजूद से झाड़- पोंछ देना मुझे
फिर
ग़लत-
अपने
वजूद से झाड़ पोंछ दूँगी तुम्हें’
क्योंकि
तुम्हें
पड़े न पड़े
मुझे
बहुत फ़र्क पड़ता है
तुम्हारा
कुछ भी रहा मुझमें
तो
खुल के साँस कैसे आएगी मुझे
आज़ादी
की...।
-0-
3- पासपोर्ट
वो
खिड़की
जिस
पर खड़े होकर
मेरी
निगाहें मुट्ठी भर आसमान
अपनी
नन्ही हथेलियों में बाँध लेती थीं
देखने
की कोशिश करते
वहीं
पर खूब ऊँचे तक
उचकते
मेरे छोटे से कदम
कभी-कभी थक जाया करते थे
खिड़की
के उस पार
एक
बड़ा समुंदर था
जिस
में तैरती थीं
मेरे
सपनों की नन्ही रंगीन मछलियाँ
और
एक कागज़ की नाव भी,
जिस
पर बैठ के
जाने
कहाँ -कहाँ तक
घूम
आती थी मैं
वह खिड़की अब शायद चटक गई
होगी
मेरे
बड़े और मजबूत
पैरों का बोझ
उठाया
नहीं जाएगा उससे
पर
फिर भी
कौन
जाने
मेरा
समुंदर आज भी वहीं हो
और
हिचकोले खाती नाव भी
बस
अब
दूर
देश जाने का
पासपोर्ट
मेरे पास नहीं...।
-0-सम्पर्क-priyanka.gupta.knpr@gmail.com
बहुत सुंदर तीनों कविताएँ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी भाव प्रियंका जी। 'बसेरा थी सराय नही','वजूद से झाड़ पोछ दूंगी'....बहुत बढ़िया!आपको बहुत बहुत बधाई!
ReplyDeleteवाह प्रियंका ! तीनो ही कविताएँ बहुत सुन्दर भावपूर्ण। एक बात बताऊँ, "क्या फर्क पड़ता है शीर्षक से मैने भी काफी पहले शायद १०-१२ साल पहले एक कविता लिखी थी, लेकिन बस शीर्षक ही एक सा था, बाकी कविता बिलकुल ही अलग थी । लो तुम भी पढ़ो ...
ReplyDeleteक्या फर्क पड़ता है
एक पत्ता ....
शाख पर रहे
या शाख से अलग
टूटा तो भी सूखा
न टूटता तो भी सूखता
क्या फर्क पड़ता है
उसे तो अपनी जड़ से
उखड़ना ही था !
हाँ ..
अगर
किसी किताब के
पन्ने में दबा होता
तो अलग बात थी
शायद कभी...
इतिहास की तरह
उल्टा पुल्टा जाता !!
(मंजु मिश्रा)
www.manukavya.wordpress.com
प्रियंका जी सचमुच बहुत खूब लिखा है आपने, मन को छू गयीं आपकी कविताएँ ।बहुत-बहुत बधाई ।
ReplyDeleteप्रियंका जी की तीनों कविताएँ नारी मन के कोमल भावों की सहज एवम सुंदर अभिव्यक्ति हैं,बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteप्रियंका जी तीनों कविताएँ बेहद सुंदर।भावपूर्ण अभिव्यक्ति मन को छू गईँ । बहुत बहुत बधांई ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचनाएँ...प्रियंका जी हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteख़ूबसूरत रचनाएँ... हार्दिक बधाई प्रियंका जी !
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