फूलदेई-डॉ. कविता भट्ट
(हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर (गढ़वाल) उत्तराखंड
आज चौंक पूछ बैठी
मुझसे एक सखी क्या है- फूलदेई?
मैं बोली पुरखों
की विरासत है- पहाड़ी लोकपर्व- फूलदेई
मैं नहीं थी
हैरान, सखी सुदूर प्रान्त की; क्या जाने- फूलदेई
किन्तु, गहन थी
पीड़ा; पहाड़ी बच्चा भी नहीं जानता- फूलदेई
आँख मूँदकर तब
मैं अपने बचपन में तैरती चली गई-
चैत्र संक्रांति
से बैशाखी तक उमड़ती थी फुलारों की टोली
रंग-रंगीले फूल
चुनकर सांझ-सवेरे सजती डलिया फूलों की
सरसों, बाँसा, किन्गोड़, बुरांस; मुस्कुराती नन्ही फ्योंली
-सी
उमड़-घुमड़ गीत
गाते थे मैं और मेरे झूमते संगी-सखी
इस, कभी उस खेत
के बीठों से चुन-चुन फूल -डलिया भरी
गोधूलि-मधुर
बेला, बैलों की गलघंटियों से धुन-ताल
मिलाती
सुन्दर महकती डलिया
को छज्जे के ऊपर लटका देती थी
प्रत्येक सवेरे
सूरज दादा से पहले, अँगड़ाई
ले मैं जग जाती थी
मुख धो, डलिया लिये देहरियाँ फूलों से सुगंधित कर आती थी
सबको मंगलकामनाएँ- गुंजन भरे गीत मैं गाती-मुस्कुराती थी
दादी-दादा,
माँ-पिता, चाची-चाचा, ताई-ताऊ के पाँय लगती थी
सुन्दर फूलों सा
खिलता-हँसता बचपन: पकवान लिये- फूलदेई
मिलते थे पैसे,
पकवान नन्हे-मुन्हों को : पूरे चैत्र मास- फूलदेई
अठ्ठानब्बे
प्रतिशत की दौड़ निगल गई
बचपन के गीत- फूलदेई
बोझा-बस्ता-कम्प्यूटर-स्टेटस
सिंबल झूठा निगल गया- फूलदेई
ना बड़े-बूढ़े, न
चरण-वंदना, मशीनें- शेष; घायल परिंदा है- फूलदेई
अगली पीढ़ी अंजान,
हैरान, परेशान है और शर्मिंदा है- फूलदेई
बासी संस्कृति को
कह भूले; अब गुड मोर्निंग का पुलिंदा है- फूलदेई
फूल खोए, बचपन खोया; बस व्हाट्स एप्प में जिन्दा
है- फूलदेई
कितना अच्छा था,
खेल-कूद-पढाई साथ-साथ : फूलों में हँसता- फूलदेई
गाता-नाचता,
आशीष, संस्कार, मंदिर की घंटियों- सा पवित्र – फूलदेई
मेरा बचपन- उसी
छज्जे पर लटकी टोकरी में; खोजो तो कोई- फूलदेई
हो सके ताज़ा कर
दो फूल पानी छिड़ककर; अब भी बासी नहीं- फूलदेई
-0-
शब्दार्थ –
फूलदेई- चैत्र संक्रांति से एक माह तक
मनाया जाने वाला उत्तराखंड का लोकपर्व
फूलारे- खेतों से फूल चुनकर देह्लियों
में फूल सजाने वाले बच्चे
बाँसा, बुराँस, किन्गोड़, फ्योली –
चैत्र मास में पहाड़ी खेतों के बीठों पे उगने वाले प्राकृतिक औषधीय फूल
बीठा- पत्थरों से निर्मित पहाड़ी सीढ़ीनुमा
खेतों की दीवारें
छज्जा- पुराने पहाड़ी घरों में लकड़ी-पत्थर से
बने विशेष शैली में बैठने हेतु निर्मित लगभग एक- डेढ़ फीट चौडा स्थान
अति सुंदर सखि, अभिभूत हूँ आपके उत्तर से।
ReplyDeleteसार्थक हुआ फूलदेई पर्व!!
कितने अर्थपूर्ण पर्व हैं भारतवर्ष के।
आभार, आदरणीया
Deleteवाह! कितना प्यारा पर्व है फूलदेई! ये तो हर प्रांत, हर हर शहर, हर गली, हर घर में मनाया जाना चाहिए! बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने कविता जी -मन मुग्ध हो गया और आज की भागा-दौड़ी के बारे में सोचकर दिल के भीतर एक टीस भी उभर आई!
ReplyDeleteइस सुंदर सृजन के लिए हृदय से आपको बधाई!!!
~सादर
अनिता ललित
आभार, आदरणीया
Deleteआपकी रचना में फूल देई की खुशबू है कविता है ...आपके खूबसूरत भाव पढ़कर ऐसे लगा मानो हम भी इस पर्व का हिस्सा बन गए..हार्दिक बधाई आपको
ReplyDeleteआभार, सखी
Deleteमेरा बचपन- उसी छज्जे पर लटकी टोकरी में; खोजो तो कोई- फूलदेई
ReplyDeleteहो सके ताज़ा कर दो फूल पानी छिड़ककर; अब भी बासी नहीं- फूलदेई
कितना सार्थक व मर्मस्पर्शी लिखा । त्योहारों,पर्वों के विलुप्त होने पर कितना दर्द महसूस होता है ।
हमने तुमसे ही जाना फूलदई को । बहुत प्यारा मनभावन पर्व है ।इसे तो जिवित बचना चाहिये ।
इसे कई जगह प्रकाशित करवाओ लोगों को भारत की संपन्न परम्पराओं व प्रकृति से जोड़ने वाले पर्वों को जानना - पहचानना चाहिये ।बधाई व आभार इसे हम तक पहुँचाने के लिये ।
नेह लो विभा
आभार, महोदया
Deleteअति आधुनिक बनने की होड़ में हम अपनी पुरानी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं शायद एक दिन हर्षोल्लास भरे ये पर्व दादी-नानी की कहानी बन कर रह जाएँगे,हमीं तो अपनी हर पुरानी परम्परा को आगे आने वाली पीढ़ी में जीवित रखनेका प्रयत्न कर सकते हैं,कहीं ऐसा न हो कि हमें इनकी यादों की ख़ुशबू में ही जीना पड़े!कविता के माध्यम से'फूलदेई' को अपनी यादों के गुलदस्ते में सजा कर हम सबको भेंट करने हेतु कविता जी आपको बहुत-बहुत बधाई |
ReplyDeleteपुष्पा मेहरा
आभार, महोदया
Deleteफूलदेई को को जीवंत कर दिया
ReplyDeleteबधाई
आभार, आदरणीया
Deleteअति आधुनिक बनने की होड़ में हम अपनी पुरानी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं हम कम्प्यूटर युग में हम अपनी विरासत भुले जा रहे हैं आप ने अपनी कविता के माध्यम से अपनी पुरानी संस्कृति 'फूलदेई'के माध्यम से जीवंत कर दिया डॉ० कविता जी आपको बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteआभार, महोदय
Deleteआधुनिक परिवेश में हमारी संस्कृति और संस्कारों का आइना हैं फूलदेई पर रचित पंक्तियाँ। बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआभार,अनु ज
Deleteआपके शब्दो ने जिस तरह से भाव को समेटा है। अति सुंदर, कोमल ,दिल को छूने वाले है आपके हर शब्द का अर्थ, बहुत अच्छा लिखा है । शुभकामनाए। मनजीत सिंह
ReplyDeleteआभार, महोदय
Deleteअद्भुत। पहलीबार जाना फूलदेई-पर्व !आभार।
ReplyDeleteआभार, महोदय
Deletebahut sunder kavita ji.....
ReplyDeleteआभार, महोदय
Deleteफूलदेई !!ke Sunder Roop ne Mann ko Tript kar diya...Dr.Kavita ji...Behad Sunder Shabd Sanyojan..& Abhivayakti....Congrates....
ReplyDeleteआभार, सखी
Deleteउत्तराखंड के इस अनूठे पर्व के बारे जान कर उन दिनों में जीने को मन कर आया । कविता जी आपने फूल देई पर्व के बहाने कितने सुंदर शब्दों द्वारा अपने बचपन की यादों को हमारे साथ साँझा किया ।मन उसपर्व के रंग में रंगने लगा ।समय की दौड़ में आगे बढ़ते हम अपना कितना कुछ पीछे छोड़ आये हैं । जो छूट गया बस छूट गया ।कहाँ हाथ आयेगा । मनोरंजन के इस अनूठे पर्व की जगह नई नई चीजें जो आ गई हैं घर घर । बहुत सारी बधाई और शुभ कामनायें । इस खूब सूरत रचना के लिये ।
ReplyDeleteआभार, महोदया
Deleteफूलदेई
ReplyDeleteमेरा बचपन- उसी छज्जे पर लटकी टोकरी में; खोजो तो कोई- फूलदेई
हो सके ताज़ा कर दो फूल पानी छिड़ककर; अब भी बासी नहीं- फूलदेई
वाह
आभार, महोदया
Deleteप्यारी क वि ता
ReplyDeleteप्यारी क वि ता
ReplyDeleteप्यारी क वि ता
ReplyDeleteआप सभी आत्मीय जनों को आभार, आपने पढ़ा, सराहा। मेरा उद्देश्य बस ये था कि हम बचपन को फिर उन्ही संस्कारों, रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं से भी जोड़ें। क्योंकि, हम मानव बनें और बनायें, मशीनें नहीं। पढ़ाई-लिखाई और बालसुलभ प्राकृतिक क्रिया-कलापों के मध्य एक संतुलन आवश्यक है, अन्यथा यह घुड़दौड़ मात्र विध्वंश ही उत्त्पन्न करेगी।
ReplyDeleteएक सुंदर .कविता बहुत सुन्दर जानकारी देती है सच ! कितना सुन्दर है हमारा हिन्दुस्तान और उसके त्यौहार.... बधाई कविता जी 🌷🌺🌹🌻🌷
ReplyDeleteHardik aabhar, mahodaya , aapki is sakaratmak tippani hetu
Deleteकविताजी,हमारे भूले हुए संस्काराें एवं संस्कृति की स्मृतियों को फिर तरोताज़ा करती आपकी यह सुंदर रचना अहसास दिलाती है कि भौतिकता की अंधी दौड़ में हमने कितना कुछ खाे दिया है,अफसोस यह है कि हमें सब कुछ लूटाने के बाद विगत स्मृतियाँ जलाती है, वह निश्छल बचपन जाे संपूर्ण प्रकृति में मग्न हाे अपने में एकाकार कर लेता था,वह अपनी मधुरता खाे चुका है, अनुपम रचना, कविताजी, बधाई -संजय अवस्थी
ReplyDeleteHardik aabhar mahoday, aapki yah sakaratmak tippani mujhe gati pradan karegi evam oorjanvit karegi
Deleteसच में, आधुनिकता की दौड़ और साधनों की अधिकता ने जीवन की ऐसी मिठास हम सब से छीन ली...| हमारे पास तो कम से कम ऐसी यादों की थाती है भी, पर आज के बच्चे कल अपनी यादों में क्या संजो कर ले जाएँगे...?
ReplyDeleteहमको भी पहली बार इस पर्व के बारे में जानकारी मिली...आभार...|
ऐसी खूबसूरत और मर्मस्पर्शी रचना के लिए बहुत बधाई...|
Aabhar, sakhi, aapke is utsahvardhan hetu
Deleteआभार, सखी, आ प का प्रेम मेरी ऊ र्जा
Deleteबहुत सुन्दर. विरासत के लुप्त होने की त्रासदी
ReplyDeleteAapki sarahna hetu aabhar
Deleteअनूठे पर्व की जानकारी देती बेहद सुंदर हृदयस्पर्शी अनुपम रचना। खूबसूरत वर्णन के लिए कविता जी आपको बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteHardik aabhar, mahodayaa
DeleteAvhhi lagi rachna meri badhai..
ReplyDeleteAabhar, Bhavna ji aapke prem hetu
Deleteबहुत सुन्दर ...हार्दिक बधाई कविता जी !
ReplyDeleteHardik aabhar mahodaya, aapke sneh hetu
ReplyDeleteबहुत सुंदर आपने फूलदेई को अतीत औऱ वर्तमान से उकेरा है मैंने भी बच्चों के मध्य रहकर इस पर्व का आनंद लिया है कितना सुंदर लगता बच्चों का घर घर की देहरी का फूलों से स्वागत करना अब हम अपनी पवित्र जड़ों को सुखा रहे हैं और नीरस टूंट की पूजा में लगे हैं सुंदर रचना के लिए बधाई
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