1-अपनापन
कृष्णा
वर्मा
समझ लेता
कभी थोड़ा- सा
जो मेरे मन को
तुम्हारा
सलीकेदार अपनापन
मिट जाती
मेरे दिल की सलेट पे
लिखी शिकायतें
थाम लेता यदि
भूले से कभी
मेरे काँधे को
तुम्हारा
विश्वास- भरा हाथ
सिकुड़ जातीं
मेरी परेशानियाँ
और फूल जाता
गर्व से
मेरी तसल्लियों का सीना
बिछ जाती
पाँव के नीचे
नर्म धूप
रोज़ रात
मेरी खिड़की की
सलाखों पे
आ टिकता चाँद
और रचने लगती
मेरी रिक्तता
फिर
कोई अभिनव गीत।
-0-
2-डॉ कविता भट्ट
बाल पकड़कर मुझे घसीटा आज कहाँ रनिवास गया
सम्मान गया, विश्वास गया, आशा का प्रश्वास गया
रक्त बिन्दुओ की धारा- सा, हाय! ये सिंदूर धधकता है
जो कंगन तुमने पहनाया, वही उपहास तुम्हारा करता है
हे आर्य! अर्धांगिनी तुम्हारी विवश विलाप ये करती है
एक नारी पर कौरव शत्रु सभा आज प्रलाप ये करती है
सिंहासन सत्ता के मद का इतिहास कलुषित रोता है
किन्नर है वह स्त्री कलुषक उसमे पौरुष नहीं होता है
लाज मेरी नही, गई तुम्हारी, क्यों बैठे हो मौन धरे
चीर नही जब बचा पाए तो, फिर तुम मेरे कौन अरे
कोई महल की वस्तु समझकर, नारी पर दाँव लगाते हो
शत्रु नहीं दोषी तुम हो, पौरुष दंभ में गोते खाते हो
धर्मराज धिक्कार पांचों पर, जुआरियों का धर्म निभाया
स्त्री का मान सामान बना, पुरुषों ने कीच में कर्म
डुबाया
भरतवंश, नारीपूजन ग्रन्थ का पन्ना काला करने वालों
चीखती-रोती द्रुपदा अभी भी है, सभ्यता का दम भरने
वालो
-0-
दर्शनशास्त्र विभाग,हे न ब
गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल
उत्तराखंड
संपर्क सूत्र- mrs.kavitabhatt@gmail.com
-0-
3-मंजूषा 'मन'
दरिया थे
मीठे इतने
कि
प्यास
बुझाते
निर्मल कि
पाप धो जाते
अनवरत बहे
कभी न थके
निर्वाध
गति से
भागते रहे
सागर की
चाह में
मिलन की
आस में
न सोचा
कभी
परिणाम
क्या होगा
मेरा क्या
होगा।
अपनी धुन
में
दुर्गम
राहें,
सब बाधाएं
सहीं हंस
के
और अंत
में
जा ही
मिले
सागर के
गले।
पर हाय!!
स्वयं को
मिटाया
क्या पाया
ये क्या
हाथ आया
कि
खारा
निकला सागर
खाली रह
गई
मन की
गागर।
-0-
कृष्णा जी, कविता जी, मंजूषा जी बहुत सुंदर, भावपूर्ण कविताओं की बधाई।
ReplyDeletesundar rachnaayen!
ReplyDeleteमँजूषाजी ,कृष्णाजी,कविताजी सुंदर कविताएँ ।बधाई।
ReplyDeleteकृष्णा जी,
ReplyDeleteमन की बात का सजीव चित्रण,बहुत सुन्दर
कविता जी, बहुत सुन्दर भावपूर्ण कविता
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ReplyDeleteमंजूषा जी बहुत सुन्दर भाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण कविताएँ.......कविता जी, मंजूषा जी.... बधाई!
ReplyDeleteApnapan rachana khaskar bahut achhi lagi baki rachnayen bhi bhavpurn hain sabhi ko badhai..
ReplyDeleteसिकुड़ गई परेशानियां, गर्व से चौड़ा हो गया तसल्लियों का सीना......सुंदर रूपक हैं कृष्णा जी। बधाई !
ReplyDeleteडॉ कविता जी द्रौपदी का चीरहरण अनवरत जारी है कभी दामिनी के रूप में तो कभी उन सैकड़ों मासूमों के बलात्कार के रूप में जो अखबारों की नित ख़बरें बनती हैं । दुर्भाग्य है ये भारतीय समाज का कि मातृशक्ति यूँ लुटती है । भावपूर्ण, सार्थक सृजन हेतु बधाई !
मंजूषा जी आप तो पीड़ा को शब्दों में गढ़ती हैं । दर्द भी सुंदर लगता है जब आपकी लेखनी से बहता है । बधाई !
सिकुड़ गई परेशानियां, गर्व से चौड़ा हो गया तसल्लियों का सीना......सुंदर रूपक हैं कृष्णा जी। बधाई !
ReplyDeleteडॉ कविता जी द्रौपदी का चीरहरण अनवरत जारी है कभी दामिनी के रूप में तो कभी उन सैकड़ों मासूमों के बलात्कार के रूप में जो अखबारों की नित ख़बरें बनती हैं । दुर्भाग्य है ये भारतीय समाज का कि मातृशक्ति यूँ लुटती है । भावपूर्ण, सार्थक सृजन हेतु बधाई !
मंजूषा जी आप तो पीड़ा को शब्दों में गढ़ती हैं । दर्द भी सुंदर लगता है जब आपकी लेखनी से बहता है । बधाई !
krishna ji manjusha ji kavita ji aapsabhi ki kavitaon me kahin na kahin darshan chhupa hai bahut bahut badhai aaptino ko
ReplyDeleterachana
कृष्ण जी मन के भावों का सजीव चित्रण है आपकी कविता |हार्दिक बधाई |कविता जी सच है आज भी नारी कितनी असुरक्षित है |मंजूषा जी ,सभी बाधाएं सही हंस के और अंत में जा मिले साहर के गले .....खूबसूरत बयान है बधाई आपको भी |
ReplyDeleteसच में इस भरी जन- सभा में सगे -सम्बन्धियों , मित्रों के बीच अपनापन मिल पाना मन रुपी गागर से मानो असम्भव अमृत के बूँद की मात्र एक झलक ही पा जाना है ,नारी -जागृति के सपनों बीच घिरी नारी अभी भी बेचारी नारों ,लेखो और भुलावों की चकाचौंध बीच ही फँसी है, मंजूषा जी वास्तव में सघर्षों को जीते -हँसते बढ़ते भी अंत में जीवन स्वयं रीता ही रह जाता है |आप तीनों रचनाकारों को अपनी२ अभिव्यक्ति हेतु बधाई | पुष्पा मेहरा
ReplyDeleteसभी सृजनकारों की सृजनशक्ति काबिलेतारीफ है बधाई
ReplyDeleteसभी सृजनकारों की सृजनशक्ति काबिलेतारीफ है बधाई
ReplyDeleteKrishna ji, Kavita ji evam Manjusha ji ... bahut hi pyari kavitayen hain .. bahut bahut badhai
ReplyDeleteतुम्हारा
ReplyDeleteसलीकेदार अपनापन
मिट जाती
मेरे दिल की सलेट पे
लिखी शिकायतें
रक्त बिन्दुओ की धारा- सा, हाय! ये सिंदूर धधकता है
जो कंगन तुमने पहनाया, वही उपहास तुम्हारा करता है
पर हाय!!
स्वयं को मिटाया
क्या पाया
ये क्या हाथ आया
कि
खारा निकला सागर
krishna ji manjusha ji kavita ji aap sabhi ki kavitayen bahut hi pyari hain .. bahut bahut badhai
आप सभी का हार्दिक आभार हमारे प्रयास पर समय और अपने विचार देने हेतु।यही हमारी प्रेरणा है।
ReplyDeleteआभार
कविता पसंद करने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteतीनों रचनाएँ बहुत सुन्दर है। .
ReplyDeleteप्रस्तुति हेतु आभार!
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन रचनाएँ...हार्दिक बधाई...|
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचनाएँ ..सभी को बधाई !
ReplyDeleteकृष्णा वर्मा जी कविता "अपनापन" मन की भावपूर्ण स्थिति की सुन्दर कृति है।
ReplyDeleteमंजूषा मन जी दरिया की नियति सागर मिलन के अलावा कुछ नही हो सकती ।मिलन के आन्नद की कल्पना को पीछे छोड़
दरिया आगे बढ़ने को ही अपने जीवन का ध्येय समझता है ।
कविता भट्ट जी द्रुपदा अब भी रोती है। बहुत ही भाव पूर्ण कविता है ।
इतनी भाव पूर्ण रचनाओं के लिये आप सब को बहुत बहुत बधाई ।