रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कविता किसी भी कवि के हृदय की गहन अनुभूति विचारों का मन्थन और कल्पना का अनुरंजन है।कवि का चिन्तन जितना गहन होगा,अनुभूति जितनी सान्द्र होगी ,कल्पना जितनी बहुरंगी होगी, भाषा जितनी ज़मीन से जुड़ी और बहुआयामी होगी , कविता उतनी ही प्रभविष्णु और प्रामाणिक होगी ।भर्तृहरि के वाक्यपदीय के अनुसार शब्द और वाक्य देशकाल में हैं,जबकि अर्थ देशकाल से परे है ।उन्होंने अपने वाक्यपदीय ग्रन्थ में कहा भी है-
स्तुतिनिन्दा प्रधानेषु वाक्येष्वर्थो न तादृश:
पदानां प्रतिभागेन यादृश: परिकल्पयते ॥-2-247
शब्दकोशीय अर्थ की एक सीमा है। जब शब्द का वाक्य में प्रयोग किया जाता है ,तभी उसके अर्थ का निर्धारण होता है । स्तुति या निन्दा प्रधान वाक्यों में अर्थ वह नहीं होता , जो उसका अभिधेय अर्थ है, वह उससे हटकर होता है।वह लक्ष्यार्थ हो या व्यंग्यार्थ हो, परन्तु शब्दकोशीय नहीं होता । क्या जल और पानी समान अर्थ वाले हैं? कदापि नहीं । गंगाजल को गंगापानी नहीं कहा जा सकता । बेशर्म आदमी को आप कह सकते हैं कि उसकी आँखों का पानी ही मर गया । कभी कोई किए–कराए पर पानी फेर देता है और विफलता ही हाथ लगती है। किए –कराए पर जल फेर देना तो होगा नहीं। कभी कोई शर्म के मारे पानी-पानी हो जाता है , जल -जल कभी नहीं होता।गहनों पर सोने-चाँदी का पानी चढ़ाने का काम होता है ,जल चढ़ाने का नहीं। जल चढ़ाने का के साथ एकप्रकार की आस्था जुड़ी है। तेज़ –तर्रार लोग अच्छे-भलों का पानी उतार देते हैं।घड़ों पानी पड़ना ,घड़ों जल पड़ना नहीं हो सकता ।चेहरे की ताज़गी तो आब(पानी ) का तो कहना ही क्या , वह न पानी है और न जल। पानी के और भी बहुत सारे अर्थ प्रचलित हैं। एक पुरानी कहावत है-
काबुल गए तुरक बन आए , बोलें गिटपिट बानी ।
आब-आब कह मरे मियाँ जी रखा सिरहाने पानी ॥
एक मियाँ जी काबुल गए थे।लोगों पर रौब जमाने के लिए वहाँ की भाषा के शब्दों का प्रयोग करने लगे । यह प्रयोग उनकी आदत बन गया। बहुत बीमार हो गए।प्यास लगी तो आब-आब चिल्लाते रहे । परिचर्या करने वालों की समझ में नहीं आया कि वे क्या कह रहे हैं ? उनको क्या चाहिए ? प्यास के कारण मर गए ,जबकि उनके सिरहाने पानी रखा हुआ था । बांग्ला में पीने का पानी , पानी न होकर ‘खाबार जोल(जल)’ है तो असमिया में दूध अलग अर्थ में प्रयुक्त होता है। सामान्य दूध के प्रचलन में ‘गौखीर’ ( यानी गाय का क्षीर) है। भैंस वहाँ नज़र ही नहीं आती ।कबीर को हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने भाषा का डिक्टेटर कहा था क्योंकि कबीर ने तो बहुत सीधी बात की है।उन्होंने भाषा को बहता नीर कहा है।जो शब्द प्रयोग में आते हैं , वे ही जीवित रहते हैं । जो प्रयोग में नहीं आते , वे काल के प्रवाह में नहीं टिकते वे भाषा से बाहर हो जाते हैं । भाषा की जीवन्तता का सबसे बड़ा आधार प्रयोग ही है। यदि कोई शब्दकोश खोलकर बैठ जाए और उसमें से शब्द चुन-चुनकर रखता जाए , तो वह काव्यरूप धारण नहीं कर सकता ।
कवि अपने प्रयोग के माध्यम से सरल से सरल शब्दों को भी अभिमन्त्रित कर देता है। भाषा बहता नीर है ,वह रास्ते में आने वाले कंकड़-पत्थर और रेत को छोड़ता जाता है। भाषा भी यही काम करती है ।प्रयोग के कारण ही शब्द अपने पुराने अर्थ को छोड़कर एकदम नए अर्थ भी ग्रहण कर लेते हैं ।‘साहस’ का अर्थ कभी लूटपाट , हत्या बलात्कार हुआ करता था , आज यह शब्द अर्थ उत्कर्ष के कारण उस अर्थ से कोसों दूर है।दूसरी ओर ‘बज्रबटुक’ , पाखण्ड जैसे अच्छे अर्थ वाले शब्द अपना पुराना अर्थ छोड़कर अर्थ अपकर्ष के कारण अपने दूसरे रूप में प्रयुक्त होने लगे हैं।अच्छा-भला तत्सम ‘भद्र’ शब्द तद्भव रूप धारण करके भद्दा हो गया । आज दोनों अर्थ प्रचलन में हैं।नेताजी जैसा शब्द तो पिछले कुछ दशक में ही अपना गरिमामय अर्थ छोड़ चुका है। तत्सम या तद्भव शब्द की छटा अलग दिखाई देती है । मृत्तिका शब्द को ही लीजिए।इससे मिट्टी और माटी तद्भव रूप बने हैं। जहाँ माटी या मिट्टी शब्द आएगा वहाँ मृत्तिका विकल्प के रूप में आ जाए , सम्भव नहीं।इन वाक्यों को देखिए-
1-माटी का चोला माटी में मिल जाएगा।
2-अरे भाई , पुरानी बातों पर मिट्टी डालो। अब मिलकर काम करो।
3-माटी कहे कुम्हार से , तू क्या रौंदे मोय ।
4-तुम ठहरे मिट्टी के माधो, लोग तुम्हें उल्लू बनाते रहेंगे।
यहाँ अगर कोई मृत्तिका का प्रयोग करेगा , तो उसे अनाड़ी ही कहा जाएगा ।किसी भी भाषा या बोली के शब्दों की ताकत तत्सम शब्दों से कई गुना ज़्यादा होती है।लोग टोपी पहनते हैं,यह सम्मान का सूचक भी है , क्योंकि टोपी उतारने की बात अपमान करना ही है। धूर्त्त लोगों को क्या कहेंगे ! वे अपना उल्लू सीधा करने के लिए न जाने कितने भले लोगों को टोपी पहना देते हैं।यहाँ टोपी पहनाना ठगने के अर्थ में आया है ।
जो शब्द जनमानस के जितने निकट होते हैं वे उतने ही सशक्त होते हैं। ढाढ़ू –वह ठण्डी बर्फ़ीली हवा ( हिमवात) जो सर्दियों में उत्तर की ओर से हरिद्वार , सहारनपुर के क्षेत्रों की ओर चलती है। इस शब्द का कोई और पर्याय नहीं हो सकता । नदी आम बोलचाल का सबका जाना –पहचाना साधारण-सा शब्द है । अब यह कवि पर निर्भर है कि वह उसका प्रयोग किस रूप में करता है । जीवन भी नदी है और सुख-दु:ख उसके दो किनारे हैं। नदी प्रेयसी है, जो अपने प्रियतम समुद्र से मिलने को आतुर होकर बहती है । नदी दु:ख से भी भरी है , जिसको हमें तैरना है । नदी प्रेम की भी है , जिसमे जो डूब गया , वह सफल हो गया वह तैर गया । कहीं कबीर उसे ज्ञान रूप भी मानता है – मैं बपुरा डूबन –डरा , रहा किनारे बैठ । जो डूबने से डरेगा , वह किनारे पर बैठा रहेगा , कुछ नहीं पाएगा।भाषा संस्कार से मिलती है, संस्कार -जन्मजात और अर्जित दोनों होते हैं । ये सुनार से गहनों की तरह उधार में नहीं मिलते ।उधार के गहने तन की शोभा बन सकते हैं,वाणी की नहीं।दूसरे सप्तक के प्रथम कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने अपने वक्तव्य में कहा था-
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और उसके बाद भी , हमसे बड़ा तू दिख।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि आप सरल भाषा के नाम पर हर जगह सब्जी मण्डी की भाषा ही प्रयोग में लाएँ । साहित्यकार होने के नाते साथ ही इतना भी तय करना पड़ेगा कि आप पाठक तक क्या पहुँचाना चाहते हैं- भाव , विचार , कल्पना आदि या शब्दजाल ! शब्दजाल के लिए काव्य की दुर्गति करना ज़रूरी नहीं । इसके लिए आप नहीं , शब्दकोश पर्याप्त है।नामी गिरामी बदमाश जब पुलिस की पकड़ में आया तो दारोगा ने सिपाहियों से कहा-
‘देखो भाई ! ये महापुरुष आज हमारे मेहमान हैं । इनके सत्कार में कोई कमी नहीं रखना।’ ।
अब आप समझ सकते हैं कि महापुरुष , मेहमान से कौन-सा अर्थ ध्वनित होता है और सत्कार का मतलब क्या है ? जिसका सत्कार हुआ होगा , उसको क्या-क्या झेलना पड़ा होगा !
तत्सम-तद्भव शब्द के बारे में कुछ शिक्षकों को बहुत भ्रान्ति है। संस्कृत के या किसी भाषा के शब्द से बार-बार प्रयोग के कारण उसी शब्द का जो बदला हुआ रूप है, वह तद्भव कहा जाएगा। उदाहरण के लिए संस्कृत के दो शब्द हैं –पर्वत और पाषाण । पर्वत का तद्भव परबत/ पर्बत प्रचलन में है, पाषाण के दो तद्भव हैं- 1-पाहन , 2 –पहाड़ । कुछ लोग व्युत्पत्ति पर ध्यान न देकर पर्वत का तद्भव रूप ‘ पाहन’ शब्द को समझ लेते हैं। कुछ शब्द ऐसे हैं , जो तत्सम और तद्भव दोनों रूपों में अलग-अलग अर्थ में प्रयुक्त होते रहते हैं। जैसे –पत्र । पत्र –चिट्ठी के रूप में भी प्रच्लित है और इसके दो तद्भव रूप –पता और पत्ता दोनों रूप में प्रचलित है।
हाइकु, ताँका, सेदोका, माहिया आदि रचनाओं के सन्दर्भ में भी मैं इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा कि भाव, कल्पना आदि के अनुकूल भाषा का प्रयोग करें ।कोल्हू के बैल की तरह शब्दों के सीमित दायरे में न घूमें। भाषा हमारे आसपास पल्लवित –पुष्पित हो रही है, उस पर ध्यान दें। उसकी धड़कन सुने और पढ़ें । कुछ वर्ष पहले हमने (डॉ भावना कुँअर , डॉ हरदीप सन्धु और मैंने) यादों पर आधारित हाइकु –संग्रह सम्पादित किया था।हमने संग्रह का नामकरण ‘यादों के पाखी’ साथी रचनाकारों को भेज दिया; क्योंकि हमने अपने एक हाइकु में उसका प्रयोग किया था । फिर क्या था , कुछ साथियों ने जो हाइकु लिखे, उनमें बलपूर्वक ‘यादों के पाखी’ ठूँस दिया । परिणामस्वरूप हमें इस तरह के बहुत सारे निर्जीव हाइकु हटाने पड़े । सरलता के नाम पर इस तरह के प्रयोग की ‘अति’ से बचें । कुछ साथी जब निर्धारित विषय पर हाइकु, ताँका , सेदोका या माहिया भेजते हैं, तो सभी में भाव और भाषा के दोहराव के शिकार हो जाते हैं । किसी वैद्य ने नहीं बताया है कि हमें एक ही विषय को रौंदकर गीत , ग़ज़ल , हाइकु आदि सभी लिखकर शूरमा बनना है ।जब दोहराव होने लगे तो कुछ समय के लिए लेखनी को आराम दीजिए । इसके बाद जो लिखा जाएगा , वह प्रभावशाली होगा । आज इतना ही बाकी फिर कभी !
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कविता किसी भी कवि के हृदय की गहन अनुभूति विचारों का मन्थन और कल्पना का अनुरंजन है।कवि का चिन्तन जितना गहन होगा,अनुभूति जितनी सान्द्र होगी ,कल्पना जितनी बहुरंगी होगी, भाषा जितनी ज़मीन से जुड़ी और बहुआयामी होगी , कविता उतनी ही प्रभविष्णु और प्रामाणिक होगी ।भर्तृहरि के वाक्यपदीय के अनुसार शब्द और वाक्य देशकाल में हैं,जबकि अर्थ देशकाल से परे है ।उन्होंने अपने वाक्यपदीय ग्रन्थ में कहा भी है-
स्तुतिनिन्दा प्रधानेषु वाक्येष्वर्थो न तादृश:
पदानां प्रतिभागेन यादृश: परिकल्पयते ॥-2-247
शब्दकोशीय अर्थ की एक सीमा है। जब शब्द का वाक्य में प्रयोग किया जाता है ,तभी उसके अर्थ का निर्धारण होता है । स्तुति या निन्दा प्रधान वाक्यों में अर्थ वह नहीं होता , जो उसका अभिधेय अर्थ है, वह उससे हटकर होता है।वह लक्ष्यार्थ हो या व्यंग्यार्थ हो, परन्तु शब्दकोशीय नहीं होता । क्या जल और पानी समान अर्थ वाले हैं? कदापि नहीं । गंगाजल को गंगापानी नहीं कहा जा सकता । बेशर्म आदमी को आप कह सकते हैं कि उसकी आँखों का पानी ही मर गया । कभी कोई किए–कराए पर पानी फेर देता है और विफलता ही हाथ लगती है। किए –कराए पर जल फेर देना तो होगा नहीं। कभी कोई शर्म के मारे पानी-पानी हो जाता है , जल -जल कभी नहीं होता।गहनों पर सोने-चाँदी का पानी चढ़ाने का काम होता है ,जल चढ़ाने का नहीं। जल चढ़ाने का के साथ एकप्रकार की आस्था जुड़ी है। तेज़ –तर्रार लोग अच्छे-भलों का पानी उतार देते हैं।घड़ों पानी पड़ना ,घड़ों जल पड़ना नहीं हो सकता ।चेहरे की ताज़गी तो आब(पानी ) का तो कहना ही क्या , वह न पानी है और न जल। पानी के और भी बहुत सारे अर्थ प्रचलित हैं। एक पुरानी कहावत है-
काबुल गए तुरक बन आए , बोलें गिटपिट बानी ।
आब-आब कह मरे मियाँ जी रखा सिरहाने पानी ॥
एक मियाँ जी काबुल गए थे।लोगों पर रौब जमाने के लिए वहाँ की भाषा के शब्दों का प्रयोग करने लगे । यह प्रयोग उनकी आदत बन गया। बहुत बीमार हो गए।प्यास लगी तो आब-आब चिल्लाते रहे । परिचर्या करने वालों की समझ में नहीं आया कि वे क्या कह रहे हैं ? उनको क्या चाहिए ? प्यास के कारण मर गए ,जबकि उनके सिरहाने पानी रखा हुआ था । बांग्ला में पीने का पानी , पानी न होकर ‘खाबार जोल(जल)’ है तो असमिया में दूध अलग अर्थ में प्रयुक्त होता है। सामान्य दूध के प्रचलन में ‘गौखीर’ ( यानी गाय का क्षीर) है। भैंस वहाँ नज़र ही नहीं आती ।कबीर को हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने भाषा का डिक्टेटर कहा था क्योंकि कबीर ने तो बहुत सीधी बात की है।उन्होंने भाषा को बहता नीर कहा है।जो शब्द प्रयोग में आते हैं , वे ही जीवित रहते हैं । जो प्रयोग में नहीं आते , वे काल के प्रवाह में नहीं टिकते वे भाषा से बाहर हो जाते हैं । भाषा की जीवन्तता का सबसे बड़ा आधार प्रयोग ही है। यदि कोई शब्दकोश खोलकर बैठ जाए और उसमें से शब्द चुन-चुनकर रखता जाए , तो वह काव्यरूप धारण नहीं कर सकता ।
कवि अपने प्रयोग के माध्यम से सरल से सरल शब्दों को भी अभिमन्त्रित कर देता है। भाषा बहता नीर है ,वह रास्ते में आने वाले कंकड़-पत्थर और रेत को छोड़ता जाता है। भाषा भी यही काम करती है ।प्रयोग के कारण ही शब्द अपने पुराने अर्थ को छोड़कर एकदम नए अर्थ भी ग्रहण कर लेते हैं ।‘साहस’ का अर्थ कभी लूटपाट , हत्या बलात्कार हुआ करता था , आज यह शब्द अर्थ उत्कर्ष के कारण उस अर्थ से कोसों दूर है।दूसरी ओर ‘बज्रबटुक’ , पाखण्ड जैसे अच्छे अर्थ वाले शब्द अपना पुराना अर्थ छोड़कर अर्थ अपकर्ष के कारण अपने दूसरे रूप में प्रयुक्त होने लगे हैं।अच्छा-भला तत्सम ‘भद्र’ शब्द तद्भव रूप धारण करके भद्दा हो गया । आज दोनों अर्थ प्रचलन में हैं।नेताजी जैसा शब्द तो पिछले कुछ दशक में ही अपना गरिमामय अर्थ छोड़ चुका है। तत्सम या तद्भव शब्द की छटा अलग दिखाई देती है । मृत्तिका शब्द को ही लीजिए।इससे मिट्टी और माटी तद्भव रूप बने हैं। जहाँ माटी या मिट्टी शब्द आएगा वहाँ मृत्तिका विकल्प के रूप में आ जाए , सम्भव नहीं।इन वाक्यों को देखिए-
1-माटी का चोला माटी में मिल जाएगा।
2-अरे भाई , पुरानी बातों पर मिट्टी डालो। अब मिलकर काम करो।
3-माटी कहे कुम्हार से , तू क्या रौंदे मोय ।
4-तुम ठहरे मिट्टी के माधो, लोग तुम्हें उल्लू बनाते रहेंगे।
यहाँ अगर कोई मृत्तिका का प्रयोग करेगा , तो उसे अनाड़ी ही कहा जाएगा ।किसी भी भाषा या बोली के शब्दों की ताकत तत्सम शब्दों से कई गुना ज़्यादा होती है।लोग टोपी पहनते हैं,यह सम्मान का सूचक भी है , क्योंकि टोपी उतारने की बात अपमान करना ही है। धूर्त्त लोगों को क्या कहेंगे ! वे अपना उल्लू सीधा करने के लिए न जाने कितने भले लोगों को टोपी पहना देते हैं।यहाँ टोपी पहनाना ठगने के अर्थ में आया है ।
जो शब्द जनमानस के जितने निकट होते हैं वे उतने ही सशक्त होते हैं। ढाढ़ू –वह ठण्डी बर्फ़ीली हवा ( हिमवात) जो सर्दियों में उत्तर की ओर से हरिद्वार , सहारनपुर के क्षेत्रों की ओर चलती है। इस शब्द का कोई और पर्याय नहीं हो सकता । नदी आम बोलचाल का सबका जाना –पहचाना साधारण-सा शब्द है । अब यह कवि पर निर्भर है कि वह उसका प्रयोग किस रूप में करता है । जीवन भी नदी है और सुख-दु:ख उसके दो किनारे हैं। नदी प्रेयसी है, जो अपने प्रियतम समुद्र से मिलने को आतुर होकर बहती है । नदी दु:ख से भी भरी है , जिसको हमें तैरना है । नदी प्रेम की भी है , जिसमे जो डूब गया , वह सफल हो गया वह तैर गया । कहीं कबीर उसे ज्ञान रूप भी मानता है – मैं बपुरा डूबन –डरा , रहा किनारे बैठ । जो डूबने से डरेगा , वह किनारे पर बैठा रहेगा , कुछ नहीं पाएगा।भाषा संस्कार से मिलती है, संस्कार -जन्मजात और अर्जित दोनों होते हैं । ये सुनार से गहनों की तरह उधार में नहीं मिलते ।उधार के गहने तन की शोभा बन सकते हैं,वाणी की नहीं।दूसरे सप्तक के प्रथम कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने अपने वक्तव्य में कहा था-
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और उसके बाद भी , हमसे बड़ा तू दिख।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि आप सरल भाषा के नाम पर हर जगह सब्जी मण्डी की भाषा ही प्रयोग में लाएँ । साहित्यकार होने के नाते साथ ही इतना भी तय करना पड़ेगा कि आप पाठक तक क्या पहुँचाना चाहते हैं- भाव , विचार , कल्पना आदि या शब्दजाल ! शब्दजाल के लिए काव्य की दुर्गति करना ज़रूरी नहीं । इसके लिए आप नहीं , शब्दकोश पर्याप्त है।नामी गिरामी बदमाश जब पुलिस की पकड़ में आया तो दारोगा ने सिपाहियों से कहा-
‘देखो भाई ! ये महापुरुष आज हमारे मेहमान हैं । इनके सत्कार में कोई कमी नहीं रखना।’ ।
अब आप समझ सकते हैं कि महापुरुष , मेहमान से कौन-सा अर्थ ध्वनित होता है और सत्कार का मतलब क्या है ? जिसका सत्कार हुआ होगा , उसको क्या-क्या झेलना पड़ा होगा !
तत्सम-तद्भव शब्द के बारे में कुछ शिक्षकों को बहुत भ्रान्ति है। संस्कृत के या किसी भाषा के शब्द से बार-बार प्रयोग के कारण उसी शब्द का जो बदला हुआ रूप है, वह तद्भव कहा जाएगा। उदाहरण के लिए संस्कृत के दो शब्द हैं –पर्वत और पाषाण । पर्वत का तद्भव परबत/ पर्बत प्रचलन में है, पाषाण के दो तद्भव हैं- 1-पाहन , 2 –पहाड़ । कुछ लोग व्युत्पत्ति पर ध्यान न देकर पर्वत का तद्भव रूप ‘ पाहन’ शब्द को समझ लेते हैं। कुछ शब्द ऐसे हैं , जो तत्सम और तद्भव दोनों रूपों में अलग-अलग अर्थ में प्रयुक्त होते रहते हैं। जैसे –पत्र । पत्र –चिट्ठी के रूप में भी प्रच्लित है और इसके दो तद्भव रूप –पता और पत्ता दोनों रूप में प्रचलित है।
हाइकु, ताँका, सेदोका, माहिया आदि रचनाओं के सन्दर्भ में भी मैं इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा कि भाव, कल्पना आदि के अनुकूल भाषा का प्रयोग करें ।कोल्हू के बैल की तरह शब्दों के सीमित दायरे में न घूमें। भाषा हमारे आसपास पल्लवित –पुष्पित हो रही है, उस पर ध्यान दें। उसकी धड़कन सुने और पढ़ें । कुछ वर्ष पहले हमने (डॉ भावना कुँअर , डॉ हरदीप सन्धु और मैंने) यादों पर आधारित हाइकु –संग्रह सम्पादित किया था।हमने संग्रह का नामकरण ‘यादों के पाखी’ साथी रचनाकारों को भेज दिया; क्योंकि हमने अपने एक हाइकु में उसका प्रयोग किया था । फिर क्या था , कुछ साथियों ने जो हाइकु लिखे, उनमें बलपूर्वक ‘यादों के पाखी’ ठूँस दिया । परिणामस्वरूप हमें इस तरह के बहुत सारे निर्जीव हाइकु हटाने पड़े । सरलता के नाम पर इस तरह के प्रयोग की ‘अति’ से बचें । कुछ साथी जब निर्धारित विषय पर हाइकु, ताँका , सेदोका या माहिया भेजते हैं, तो सभी में भाव और भाषा के दोहराव के शिकार हो जाते हैं । किसी वैद्य ने नहीं बताया है कि हमें एक ही विषय को रौंदकर गीत , ग़ज़ल , हाइकु आदि सभी लिखकर शूरमा बनना है ।जब दोहराव होने लगे तो कुछ समय के लिए लेखनी को आराम दीजिए । इसके बाद जो लिखा जाएगा , वह प्रभावशाली होगा । आज इतना ही बाकी फिर कभी !
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Umda sarthak lekh bhaiya ji
ReplyDeleteकविता की भाषा पर बहुत सहज ,सरल किन्तु प्रभावी प्रस्तुति !
ReplyDeleteवस्तुतः भाषा, भाव , शैली पर इस तरह के आलेख हमारे लिए बहुत-बहुत उपयोगी होंगे |
एतदर्थ आदरणीय काम्बोज भाई जी के प्रति हृदय से आभार ..
सादर नमन के साथ
साहित्य और भाषा बहुत ही प्रभावशाली लेख है। सरल भाषा में बात कहना देखें सुनने में चाहे सरल दीखता है लेकिन ये है सबसे कठिन। सरल भाषा से आप कैसे पाठक के मन के समीप पहुंचते हैं यह लेखक की लेखन कला पर है। जिसमें छोटी बातों को सरलता से कहना सीख लिया वही सिकंदर। रामेश्वर जी आपने सही कहा जब दोहराव होने लगे तो कुछ समय के लिए लेखनी को आराम दीजिए। दूसरों को पढ़ें, गुणे और ग्रहण करें। अगर सभी लेखक ही बने रहे तो पाठक कौन होगा कहने का भाव है कि लेखक होने के साथ साथ आप का एक अच्छा पाठक होना लाज़मी है।
ReplyDeleteअच्छी सीख देने के लिए आपका बहुत आभार !
हरदीप
सुंदर, सहज, प्रभावी लेख !
ReplyDeleteसच! जो भाव हमारे दिलों में उठते हैं, शब्दों के सहारे पाठक तक पहुँचते हैं! इसलिए भाषा का स्वाभाविक, सहज, सरल, सुंदर प्रवाह आवश्यक है। इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए आपका हृदय से आभार हिमांशु भैया जी।
~सादर
अनिता ललित
इस बेहद प्रभावपूर्ण, सामयिक, विचारपूर्ण, चिंतन योग्य, और आवश्यक रूप से अनुसरणीय लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद काम्बोज सर!
ReplyDeleteये सदा हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा. इसी श्रृंखला में और भी लिखते रहिएगा. आभार...
कितनी सहजता से इतनी गहन बात आप समझा गए...यही तो जादू है शब्दों के सही प्रयोग का...| दिल से निकली बात ही दिल तक जाती है...और हमारा दिल तो किसी शब्दकोष से संचालित नहीं हो सकता न...|
ReplyDeleteबहुत सार्थक और सटीक आलेख...काश! कुछ साहित्यकार इस बात को समझ सके तो पाठकों को निःसंदेह बहुत उत्कृष्ट, परन्तु उन्हीं की भाषा-बोली कहता साहित्य पढने को मिलेगा...| तब शायद `पाठकों की कमी' जैसी बातें नहीं उठेंगी...|
आभार...
धन्यवाद आदरणीय काम्बोज जी इतने विचारपूर्ण लेख के लिए | हर बात को आपने जिस सहजता और सादगी से समझाया है वही इस लेख का अनुपम उदाहरण भी है | केवल शब्दकोशीय शब्द इकट्ठे करने से काव्य में सौन्दर्य नहीं आ सकता, काव्य में तो कल्पना के रंग भी होने चाहिए और कुछ ऐसा जो पाठक के अंतर्मन तक उतर जाए | शब्द और वाक्य देशकाल में हैं,जबकि अर्थ देशकाल से परे है --- हर लेखक को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए | आशा है भविष्य में भी आप ऐसी अनुकरणीय बातों से परिचित कराते रहेंगे | आभार आपका |
ReplyDelete@ असमिया में दूध अलग अर्थ में प्रयुक्त होता है।सामान्य दूध के प्रचलन में ‘गौखीर’ ( यानी गाय का क्षीर) है।
ReplyDeleteअसम में रहते हुए भी कभी 'गाखिर' शब्द के अर्थ को ढूंढने की कोशिश नहीं की थी , आज पता चला … आभार भैया।
सहज समझ में आने वाला लेकिन विद्वत्तापूर्ण आलेख है. अंगरेजी में एक कहावत है - पैडागोगी डाइछा हार्ड - आप समझाते बहुत अच्छे से हैं. इससे नए रचनाकारों को अपनी रचनाओं को लिखने की 'तमीज़' आती है. ऐसे आलेखों का स्वागत किया जाना चाहिए.बधाई. सुरेन्द्र वर्मा
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक आलेख है , शब्दों का जबरजस्ती प्रयुक्त करना रचना के साथ नाइंसाफी है , भाव आ ही नहीं सकतें हैं , कई लोग क्लिष्ट भाषा दर्शाने के लिए भारी भरकम शब्दो का प्रयोग करतें है उसमे भाव कहीं विलुप्त हो जातें हैं। पाठक को कविता में बिम्ब और अपनी ही बात का अहसास होना चाहिए। सुन्दर सार्थक आलेख हेतु हार्दिक बधाई भैया।
ReplyDeletebhai ji bahut hi gyanvardhak lekh hai ,sach mein kavita ek bhav - tarang hai jo kalpana ki sarita mein hiloren leti hai.isaka janm hriday -gufa se hota hai . yah koi nibandh nahin jisame baudhikata ka samavesh karen. saral shabdon mein sahaj abhvykti hi kavita hai. is alekh ko padh kar yah bat gunani chahiye.badhai
ReplyDeletepushpa mehra.
ReplyDeleteहार्दिक बधाई, काम्बोज जी |
अन्य पाठकों से मैं पूरी तरह सहमत हूँ | नया कुछ कहने को बचा नहीं |
आपका पथ प्रदर्शन सराहनीय है |
सधन्यवाद
मीरा
अति उत्तम, प्रभावशाली, सार्थक लेख....हार्दिक आभार भाईसाहब!
ReplyDeleteकविता किसी भी कवि के हृदय की गहन अनुभूति विचारों का मन्थन और कल्पना का अनुरंजन है।कवि का चिन्तन जितना गहन होगा,अनुभूति जितनी सान्द्र होगी ,कल्पना जितनी बहुरंगी होगी, भाषा जितनी ज़मीन से जुड़ी और बहुआयामी होगी , कविता उतनी ही प्रभविष्णु और प्रामाणिक होगी ।ati sunder
ReplyDeletebadi hi sahajta tatha saralta se baat ko samajhaya hai aapne himanshu ji saath hi -
!गंगाजल को गंगापानी नहीं कहा जा सकता । बेशर्म आदमी को आप कह सकते हैं कि उसकी आँखों का पानी ही मर गया । कभी कोई किए–कराए पर पानी फेर
देता है और विफलता ही हाथ लगती है। किए –कराए पर जल फेर देना तो होगा नहीं। कभी कोई शर्म के मारे पानी-पानी हो जाता है जल चढ़ाने का के साथ एकप्रकार की आस्था जुड़ी है। ते
, जल
-जल कभी नहीं होता।गहनों पर सोने-चाँदी का पानी चढ़ाने का काम होता है ,जल चढ़ाने का नहीं। जल चढ़ाने का के साथ एकप्रकार की आस्था जुड़ी है। bahut hi badhiya udahran!prabhaavpurn v chintan karne yogy-
भाषा संस्कार से मिलती है, संस्कार -जन्मजात और अर्जित दोनों होते हैं । anusarniy lekh...bahut bahut pasand aaya...man se likha aur man tak pahunch gaya....aapki shishya hone par apne aap par hamesha garv hota hai ..naya sikhane ke liye punh ...abhaar!
पूर्णतः सहमत आदरणीय हूँ , शब्दकोष में से शब्द चुन चुन कर लिखा गया काव्य , पाठको को भी शब्दकोष खोलने को मजबूर कर दे तो पढ़ने का आंनद कम जाता रहता है।
ReplyDeleteआपने अपना अमूल्य समय देकर मेरा लेख सराहा और मेरा मनोबल बढ़ाया । आप सबका धन्यवाद करने के लिए मेरे शब्द कम पड़ जा रहे हैं। पुनश्च आपका आभार !
ReplyDeleteBahut gyanvardhak,gahan,sarthka lekh likha aapne Kamboj Ji bahut bahut badhai aapko...
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