दर्द की
इबारतें
डा.सुरेन्द्र वर्मा
ऐसा शायद ही कोई मानुष हो जिसने अपने जीवन काल में कभी न कभी दर्द महसूस न किया हो. वह न केवल अपना दर्द महसूस करता है, बल्कि दूसरों की पीड़ा भी उसे आहत करती है. वह दूसरे के दर्द से भी द्रवित होता है. दूसरों का दर्द प्राय: उसका अपना दर्द हो जाता है. दूसरों के दर्द को महसूस कर पाने की यह क्षमता संभवत: केवल मनुष्य में ही होती है और यही बात उसे अन्य जीवों से अलग करती है. संवेदनशीलता इसी का नाम है. ज़ाहिर है हम यहाँ व्यक्ति के शारीरिक दर्द की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसकी अपनी मानसिक पीड़ा की और इशारा कर रहे हैं जो अपने और दूसरों के दर्द से उत्पन्न होती है. शारीरिक चोट को तो हम प्राय: भुला देते हैं. लेकिन मानसिक आघात का दर्द कुछ ऐसा होता है कि उसे हम न चाहते हुए भी पाले रखते हैं.
मनुष्य बेशक एक संवेदनशील प्राणी है. लेकिन
कुछ लोग अपेक्षाकृत कम या अधिक सवेदनशील होते हैं. जो अधिक संवेदनशील हैं वे दूसरों के दर्द से
द्रवीभूत होकर उन उपयों की भी तलाश करते हैं जिनसे उन्हें उनके दर्द से कुछ राहत
दिलाई जा सके. यह प्राय: आर्थिक, चिकित्सकीय, सामाजिक और राजनैतिक उपायों /साधनों से
ही संभव हो पाता है. जो लोग ऐसा नहीं कर पाते वे भी अपने साथियों के दर्द की ओर
इशारा तो कर ही सकते हैं और सक्षम लोगों को दर्द-निवारण की दिशा में प्रेरित कर
सकते हैं. साहित्यकारों और कवियों के बारे में अक्सर कहा जाता है कि ये अत्यंत
संवेदनशील प्राणी होते हैं किन्तु उनके पास दर्द निवारण के लिए कोई उपाय नहीं
होता. वे अपने पाठकों को अपनी संवेदनाओं का भागीदार बनाने में ही प्रसन्नता का
अनुभव करते हैं हैं. डा. शकुन्तला तँवर इसे ‘मखमली छुअन’
कहती हैं.-
अक्षर
शिल्पी
अपनी
संवेदना
बाँट
प्रसन्न (मखमली छुअन)
अधिक से अधिक वे अपनी
पीड़ा के स्थलों की तलाश कर सक्षम लोगों को उन स्थलों की ओर संकेत भर सकते हैं कि
यहाँ-यहाँ जो दर्द के ठौर हैं और उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए. हाइकुकारों ने
अपनी रचनाओं में अपने इस इंसानी दर्द को महसूस किया है और उसे वाणी दी है.
मनुष्य अपनी पीड़ा आसानी से भूल नहीं पाता.
यदि भूलने का प्रयत्न भी करे तो स्मृतियाँ उसे बार बार दर्द की याद दिलाती रहती
हैं. सुप्रसिद्ध कवयित्री,
डा. सुधा
गुप्ता अपने एक हाइकु में कहती हैं –
स्मृति
बुनती
दु:खों के
करघे में
पीड़ा का
थान (यादों के पांखी)
और तब, आँसू रोके नहीं रुकते. आसुओं के माध्यम से निर्जीव
पड़े दर्द को एक बार फिर गति मिल जाती है, इसी भाव को प्रकट
करते हुए वरिंदरजीत सिंह बराड़ कहते हैं –
‘यादें बहती / बन आँख का पानी / दर्द-रवानी’
(यादों के पाखी)
डा.शकुन्तला तँवर भी अपनी हाइकु रचनाओं में लगभग यही बात कहती दिखाई देती हैं.-
छाले याद
के / जब भी फूट जाते / दर्द बढ़ता (मखमली
छुअन)
लेकिन क्या किया जाए? हर व्यक्ति के अपने अपने दुःख हैं. अगर जीवन है तो
उसके साथ सुख-दुःख भी है. बचा नहीं जा सकता. ‘मन
मुखिया’ में रेखा रोहतगी कहती हैं-
‘लिखे निबंध /जीवन पुस्तक में /सुखदुःख के’
इसी तरह रमेश चन्द्र सोनी
का भी कहना है कि –
‘समय रथ /
सुख-दुःख उसमें / चढ़ें-उतरें.’ (हाइकु,
2009)
डा. महावीर सिंह अपने
काव्यात्मक अंदाज़ में कहते हैं-
‘पैबंद लगे / जीवन चादर में / सुख दुःख के’.
(वही)
ललित मावर इसीलिए दर्द को ज्यादह तवज्जह नहीं
देते-
‘दर्द अपना
/लँगोटिया यार है /देखा परखा’ (वही)
डा. रामनिवास मानव सुख
दुःख को अस्थायी मानते हुए कहते हैं-
“सुख दुःख
हैं /केवल पर्यटक/ आए थे, गए!”
ऐसे में दुःख-दर्द से भला घबराना
क्या? दर्द तो जीवन की निशानी है. गिरीश पांडे दार्शनिकता का
पुट देते हुए कहते हैं.
दर्द निशानी/ हमेशा जीवन
की , / मौत की नहीं
(हाइकु, २००९)
रचनाकारों ने इसीलिए अपने दर्द का
उदात्तीकरण करते हुए उसे हाइकु में एक रचनात्मक दिशा प्रदान की है. ‘मन
मुखिया’ में रेखा रोहतगी कहती हैं-
‘पीड़ा को
बोया / आंसुओं से जो सींचा / उगे हाइकु’
या फिर,
पीड़ा
निचोड़/ समय को मैं भूलूँ/ हाइकु लिखूँ
दुःख दर्द का कोई एक कारण
नहीं होता. कारणों की दृष्टि से यह बहुरंगी है. कुछ दर्द व्यक्तिगत और शारीरिक
होते हैं और कुछ भौतिक वातावरण की उपज होते है. अपने अपने कारणों के अनुसार दर्द
की अनेक किस्में हैं. एक दर्द है जो प्रेम की वजह से होता है. उसे उर्दू के कवियों
ने ‘दर्दे-दिल’ कहा है. प्यार का यह दर्द प्रिय के मिलन और विरह दोनों
ही स्थितियों में देखा जा सकता है. श्याम खरे कहते हैं
–
मिले तो
बढे/न मिले तो सताए/ दर्द प्यार का (सरस्वती सुमन, हाइकु विशेषांक)
इसीलिए हरकीरत ’हीर’, शिकायत
करती हैं,
“रब्बा
क्यों देते / मुहब्बत के रिश्ते / दर्द अनोखा’
। (वही).
लेकिन प्रेम की पीड़ा कुछ
ऐसी होती है कि आसानी से जाती नहीं,
‘कैसा ये
दर्द /उम्र खो गई कहीं / आँख न हंसी !’ वे मनुहार
करती हैं,
‘सिल दो कभी
/ बरसों से कटी है / दर्द की चुन्नी’. हरकीरत ‘हीर’
ने अपनी रचनाओं में दर्द की इबारत बड़े रचाव से लिखी है. वे दर्द
संबंधी नए नए काव्यात्मक उपमान ढूँढ़ती हैं. दर्द संबंधी उनके कुछ अन्य हाइकु.देखिए
–
रोया ये
मौन / पत्तों से लिपटी हैं / दर्द की बूँदें
दर्द की
रात / छलकी है आँखों में / अक्षर रोये
दर्द के
हर्फ़ / रहे कलम संग / नज़्म न लिखी
रात ये
कैसी / दर्द का घूँट-घूँट / पिलाए जाम
लेकिन फिर भी वे चुप रहती
हैं,और अंतत: चुप्पियों में बँधा दर्द
का रिश्ता टूट ही जाता है! -
टूट ही
गया/चुप्पियों में बँधा,वो / दर्द का रिश्ता
लेकिन रचनाचारों और
कवियों की कलम से दर्द का सम्बन्ध चिरस्थायी है. वे दर्द के नए नए आयामों से अपनी
रचनाएं सदा संवारते ही रहेंगे.
कुछ ऐसे सामाजिक दर्द भी होते है जो भौतिक और
वातावरण संबंधी कारणों से होते हैं. जैसे उत्तराखंड की त्रासदी, भूकंप, सूखा और बाड़ आदि. सुनामी
जैसे तूफानों से उत्पन्न तकलीफों ने भी हाइकुकारों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है.
इसी प्रकार उत्तराखंड में हुई त्रासदी भी है. प्रसिद्ध हाइकुकार नलिनीकान्त ने तो ‘उत्तराखंड में महाप्रलय’ पर तो पूरा एक हाइकु काव्य ही लिख दिया है.
अनेकानेक साहित्यकारों ने शोषण, असमानता, दरिद्रता, धार्मिक और
जातीय कट्टरता, तथा भ्रष्टाचार आदि मानवी बुराइयों से
उत्पन्न इंसानी-दर्द को भी अपनी रचनाओं में उभारा है किन्तु ये रचनाएँ स्वयं दर्द
के स्वभाव को कम ही रेखांकित कर पाती हैं. वे ‘हाइकु’
कम ‘सेंर्यु’ अधिक हैं. उनके बारे में फिर कभी.
-सुरेन्द्र वर्मा,
10, एच आई
जी 1, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद (उ. प्र)- 211001
-0-
कितना संवेदनशील लेख है। दर्द के हर पहलू को डा.सुरेन्द्र वर्मा जी बहुत एक एक हाइकु और हाइकुकार के ह्रदय को छूकर लिखा है। डा. साहब से कहना चाहती हूॅँ कि
ReplyDeleteहै मिला सब
दुख उसका भी है
अभिन्न साथी ।
यह आप सा संवेदनशील व्यक्ति सहज ही समझ सकता है।
हाइकुकारों की दर्द डूबी अभिव्यक्ति को बहुत सुन्दर ,सरस ढंग से प्रस्तुत किया गया है | भावपूर्ण आलेख के लिए आदरणीय डॉ.सुरेन्द्र वर्मा जी को हार्दिक बधाई ..सादर नमन !
ReplyDeleteaadarniy dr. surendra verma ji ko haardik badhai ...samvedna ko itne sunder dhang se paribhashit kiya hai is bhaavpurn aalekh mein.... .haikukaro ki v aapki lekhni ko barambaar naman .
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