बातों ही
बातों में
आज की कविता और हाइकु
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
साहित्य
कैसा हो , यह चिरन्तन प्रश्न है। लिखा इसलिए जाता है कि वह पढ़ा जाए। पढ़ा क्या जाए
यह वैसा ही सवाल है कि क्या खाया जाए ? शारीरिक
स्वास्थ्य के लिए जो हितकर हो वही खाया जाए । इसी तरह मानसिक आरोग्य के लिए
जो हितकर हो , वही पढ़ा जाए। तब यह भी
ज़रूरी है कि जो मानसिक आरोग्य के लिए हितकर हो , वही लिखा जाए। अपनी व्यक्तिगत
कुण्ठा , रुग्णता का वमन करना कुछ भी हो साहित्य नहीं है । आज के लिए यह कोई नई
स्थिति नहीं है । रीतिकाल में इस तरह की विकृति साहित्य में आ चुकी थी । कुछ केवल
छन्द की सिद्धि कर रहे थे तो कुछ राधा –कृष्ण
यह अन्य की आड़ में विकृति परोसने को आतुर थे । आज कथा –कहानी
में भी उसी तरह का बोल्ड लेखन करने वाले हैं। कविता भी कहाँ पीछे रहने वाली है ।जो
कुछ न हो उसका कवि बन जाना घटना / दुर्घटना बनकर हमारे सामने है । फ़ेसबुक तो इसका
सरल माध्यम बन गई है । यही कारण है कि अच्छी रचनाओं के साथ-साथ कुरूप लेखन में भी
वृद्धि हुई है। हुआँ –हुआँ करके
अपना शृगाल-स्वर मिलाने के लिए एक वर्ग अवसर की ताक में रहता है । यही कारण है कविता
की दुर्गति बहुत अधिक हो रही है। ऐसा क्यों है, यह विचारणीय प्रश्न है।
और विधाओं की तुलना में कविता अधिक लिखी जा रही है।जब अधिक लिखा जाएगा ,तो उसमें सब स्तरीय हो , ग्राह्य हो , यह ज़रूरी नहीं।साहित्य में ऐसी कोई प्रशासनिक शक्ति भी किसी के हाथ में नहीं
हो सकती कि क्या लिखा जा , किस शैली में लिखा जाए और कौन लिखे
। पुस्तकों की भूमिकाओं में , साहित्य सभाओं में कई बार पढ़ने
–सुनने
को मिला कि अमुक साहित्यकार ग़ज़लकार/ कहानीकार आदि ही नहीं
,प्रशासनिक अधिकारी भी हैं। यदि कोई किसी दफ़्तर में बाबू होगा
,तो क्या वह दोयम दर्ज़े का साहित्यकार हो जाएगा या यदि कोई नौकरी
के शुरू में दफ़्तर में बाबू था और आज अधिकारी बन गया ,तो क्या
उसका लेखन एवरेस्ट की चोटी पर पहुँच गया।साहित्य और साहित्यकार के ये पैमाने किसी रचना
पर लागू नहीं हो सकते । कुछ की तकलीफ़ तो यही
है कि ग़ज़ल , हाइकु , दोहा आदि बहुत लिखे
जा रहे हैं। उनके हाथ में लाइसेन्स बाँटने का काम होता ,तो वे
सबको बाहर का रास्ता दिखा देते । इसमें कोई दो राय नहीं है कि हाइकु को नए –पुराने
रचनाकारों ने आसान विधा समझ लिया है।किसी रचनाकार का 5-7-5 के वर्णक्रम में कुछ भी लिख
देना हाइकु नहीं है । सबसे पहली शर्त है कि उसे अच्छा काव्य तो होना ही चाहिए । कितना
लिखा जा रहा है के स्थान पर कैसा लिखा जा रहा है ,यह महत्त्वपूर्ण है। यह जापान से आया , इसलिए इसे कान पकड़कर बाहर किया जाए । तब तो ग़ज़ल भी ख़तरे में पड़ जाएगी । बहुत
सी अन्य विधाएँ भी संकट में आ जाएँगी । आज विश्व के सभी देश एक –दूसरे
पर निर्भर हैं ।जापान में बनी मैट्रो की सवारी करेंगे , चीन में बनी वस्तुएँ सस्ती होने के कारण उपयोग में लाएँगे, ज़रूरत पड़ने पर धुर विरोधी पाकिस्तान से आयात की गई प्याज भी खाएँगे। ‘वसुधैव
कुटुम्बकं’ का उपदेश देने वाला देश संकीर्ण सोच
और तालिबानी व्यवहार दिखाकर आगे नहीं बढ़ सकता । किसी विधा में लिखने से कोई सांस्कृतिक संकट
आने वाला नहीं। कुछ का व्यवहार इतना हास्यास्पद है कि जैसे हर साहित्यकार को उनसे पूछकर
ही किसी विधा में लिखना चाहिए । जो उनसे पूछकर नहीं लिखेंगे , लगता है उनको फाँसी पर लटका देंगे।हिन्दी या हिन्दी के प्रसार के लिए कोई महत्त्वपूर्ण
कार्य यदि विदेश की धरती पर हो जाए , तो इन लोगों को मिर्गी का
दौरा पड़ने लगेगा।वैसे मिर्गी का इलाज कुछ लोग जूता सुँघाकर भी कर देते हैं। विश्वभर
में कुछ ऐसे भी लोग हैं , जिनका काम करने में नहीं बल्कि संस्था
बनाने में बहुत विश्वास है । ये लोग अपनी संस्था के खुद ही अध्यक्ष होते हैं
, खुद ही सचिव , खुद ही सब कुछ । इनकी संस्था किसी
मुहल्ले में भली न जानी जाए , लेकिन नामकरण में विश्व शब्द ज़रूर
शामिल कर लेंगे। देश-विदेश के लोगों को बहकाकर अनुदान/
दान / पुरस्कार झपटना इनकी योजना का प्रमुख एजेण्डा
होता है ।जिसने किसी विश्वविद्यालय में प्रवक्ता/ रीडर पद पर
कभी कार्य न किया हो और वह खुद को प्रोफ़ेसर बताने लगे तो इस हथकन्डे से अधिक दयनीय
क्या होगा ! ये लोग किसी विधा के नहीं होते और कोई विधा इनकी
नहीं होती ; फिर भी ये विश्व स्तरीय होते हैं। ऐसे लोगों के बलबूते
पर किसी विधा/ भाषा / साहित्य का कोई भविष्य
नहीं। हाँ एक ख़तरा ज़रूर बढ़ा है और वह यह है कि जो न दूसरों का लिखा पढ़ते हैं , न
उन पर टिप्पणी के नाम पर एक भी वाक्य लिखने को तैयार हैं , वे खुद पर लेख लिखवाने
की जुग़ाड़ करते नज़र आते हैं । ‘कल हो न हो’ की
आशंका से पीड़ित ऐसे लोग इस काम के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। इनसे विधा का
हित कम अहित ही अधिक होगा।
हाइकु में
बेसिर –पैर का लिखने वालों की कमी नहीं है । यह
काम आज से नहीं ; बल्कि 30-35 साल से जारी है ।कुछ
लोग विषय-ज्ञान न होने पर भी बड़े आत्मविश्वास के साथ कुछ भी अनर्गल लिख देंगे।
शब्दकोश से चुनकर बेसिर-पैर के शब्द जड़ देंगे और कचरे का ढेर लगा देंगे। अब यदि कोई
छाँट-छाँटकर कचरा ही पढ़ेगा , तो उसे कौन
रोक सकता है ? अगर किसी को अच्छा हाइकु भी पसन्द नहीं
, तो लोग लिखना बन्द नहीं कर देंगे। किसी को लौकी पसन्द नहीं
,तो किसान उसे उगाना बन्द करने वाले नहीं।नकारात्मक सोच रखने से ही कोई
विद्वान् नहीं बन जाता ।सकारात्मक और सर्जनात्मक सोच ही साहित्य की शक्ति है।वही
किसी विधा को गरिमा प्रदान कर सकती है।
हिन्दी विभागों
में भी ऐसे महारथी बैठे हैं ,जो विधाओं के अध्ययन को उतना महत्त्व
नहीं देते , जितना फ़तवे जारी करने में देते हैं । इनकी भाषा समालोचना
की भाषा न होकर दूसरों को गरियाने की
संस्कार-शून्य भाषा होती है।ऐसे संकीर्ण
लोगों की पहचान न तो साहित्यकार के रूप में है और न अच्छे शिक्षक के रूप में ।यह सच
है कि हाइकु आज विश्वभर में स्वीकृत है ।आने वाले समय में इसका और विस्तार होगा।हाय-तौबा करने से लोग लिखना बन्द नहीं करेंगे।मैं अच्छी ग़ज़ल लिखने में सक्षम नहीं
, क्योंकि इसके लिए मैंने कभी विधिवत् प्रयास ही नहीं किया। हर व्यक्ति हर विधा लिख सके,
यह सम्भव नहीं।यदि मैं इसी कारण से ग़ज़ल को कोसने लगूँ तो यह अनुचित होगा
। इसी प्रकार जो अच्छा हाइकु नहीं लिख सकते,
तो वे
इसे कोसने का काम क्यों करते हैँ ? खुद अच्छा लिखकर बताएँ कि
अगर वे लिख पाते तो कैसा लिख पाते ।जिसको जो विधा पसन्द नहीं , वह उसको न पढ़ने के लिए स्वतन्त्र है।
अन्तत:
मेरा यही कहना है कि कथा हो या काव्य , पाठक को
प्रभावित करने वाला , संवेदित करने वाला साहित्य ही जिन्दा रहेगा । जो पाठक को प्रभावित
नहीं करेगा , वह दूर तक चलनेवाला नहीं।साहित्य में हठधर्मिता,
संकीर्णता और अधिनायकवादी प्रवृत्तियों का कोई स्थान नहीं होता।नई कविता
, गीत , नवगीत , ग़ज़ल आदि
को कोसकर देख लिया ,क्या हुआ ? अच्छा लेखन आज भी सराहा जा रहा है ।जो अपने
को विधा विशेष का लाइसेन्स बाँटनेवाला समझता है,उससे अधिक
दयनीय कोई नहीं हो सकता ।जिसका मन जिस विधा में लिखने का होगा , वह लिखेगा ही , कोई छाती कूटे या अपना सिर फोड़े।इतना
जान लेना ज़रूरी है कि जो रचेगा , वही बचेगा । वमन करना साहित्य नहीं। साहित्य में
भीड़तन्त्र किसी विधा को जिन्दा नहीं रख
सकता ।समय की छलनी उसे छान ही देती है। बाढ़ उतरने पर कूड़ा-कचरा खुद किनारे लग जाता
है। अत: वही बचेगा , जो निर्मल होगा ।
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सही कहा भैया जी ! सहमत हैं आपसे हम !
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
नवरात्रों की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (25-03-2015) को "ज्ञान हारा प्रेम से " (चर्चा - 1928) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही विचारपूर्ण, तर्कपूर्ण, तटस्थ और बेबाक लेख है सर.
ReplyDeleteमैं विनम्रतापूर्वक, पूर्णतयाः सहमत हूँ.
साहित्यिक असहिष्णुता और पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानसिकता पर सटीक प्रस्तुति !
ReplyDeleteबहुत आभार ,सादर नमन आपको !
aaj kii hakiikat ko charitaarth karta huaa aalekh .
ReplyDeleteaap kii kalam kii aavaaj to saari duniyaa ke lie yathaarth kaa aainaa hae .
saadr nmn aapko bhaai
सटीक व सामायिक लेख । लेखन-प्रतिभा क किसी पद विशेष
ReplyDeleteसे क्या संबंध। जयशंकर प्रसाद आठवीं पास भी नहीं थे
और तंबाकू बेचते थे पर साहित्यिक बहुमुखी प्रतिभा
के धनी थे ।कामायनी पर आज भी शोध जारी हैं।
रचनात्मकता मन के उद्गारों एवं अनुभूतियों के साथ -साथ कल्पना की सहज अभिव्यक्ति है | इसे चाहे किसी भी विधा में रचा जाए, साहित्य है | हाँ रचना का सार्थक एवं हृदय को छूने वाली होना चाहिए , तभी पाठकों को पसंद भी आएगी | धन्यवाद इस आलेख के लिए आदरणीय काम्बोज जी |
ReplyDeletebhaiya ji bahut -bahut abhaar is lekh ke liye...aapne jo bhi kaha ,tarkpurn hai ...vinamrta ke saath badhai bhi sveekaar keejiye .
ReplyDeleteबहुत सच्चा-सार्थक-सटीक लेख...| आपने बहुत सही लिखा है...वमन करना साहित्य नहीं। साहित्य में भीड़तन्त्र किसी विधा को जिन्दा नहीं रख सकता ।समय की छलनी उसे छान ही देती है। बाढ़ उतरने पर कूड़ा-कचरा खुद किनारे लग जाता है। अत: वही बचेगा , जो निर्मल होगा |
ReplyDeleteमेरी हार्दिक बधाई...|