सत्या
शर्मा कीर्ति
1- पिता
मैं भी कभी पिता बन
पिता होने के उस एहसास
को पाना चाहती हूँ
कि कैसे रोक लेते हैं पिता
आँसुओं के नदी को और
फिर बन जाते हैं वे
खुद ही समंदर
कि कैसे मुस्कुराते हैं पिता
जीवन के कठिन क्षणों में भी
और खुद बन जाते हैं
राहतों के पल
कि कैसे दिल थाम बने
रहते हैं सहज और शांत पिता
अपनी जवाँ होती बिटिया
को देखकर
कि कैसे अपने बेरोजगार बेटे
को बँधाते हैं ढाढस
और सम्भालते है उसकी
भी गृहस्थी को
कि कैसे तंगी के दिनों भी
बच्चों पर नहीं आने देते
किसी भी परेशानी के
बादल
कि कैसे कभी नहीं करते
किसी सेअपने बीमारियोंका जिक्र
और होते जाते हैं खोखले
अंदर ही अंदर
कि कैसे अपने पूरे परिवार से
दूर किसी अनजान से शहर में
गुज़ार देते है पूरी उम्र
ताकि परिवार के लिए जुटा सकें
सुविधाओं के दिन
कि कैसे अपनी बिटिया सौंप
देते हैं अजनबियों के हाथों
पर अपने दर्द उभरने नही देते
चेहरे पर
कि कैसे छुपाते हैं अपने बुढापे को
और अपने थकते शरीर को
ढोते रहते हैं अपने ही कंधों पर
कि अपने आने बाले अंतिम
क्षणों की आहट सुनकर भी
बने रहते हैं अपनों के लिए
एक मजबूत-सी छत
हाँ एक बार पिता बन
उनके एहसास को , उनके
ज़ज़्बात को ,उनके
संस्कार को ,
उनकी ऊँचाई को ,
हृदय की गहराई को छूना
चाहती हूँ
काश एक बार.....
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2- जाड़े की धूप
ओ धूप जाड़े की
सुनो न जब कुहासे से भरे /अधखिले-से
सुबह तुम अपनी छोटी सी पोटली में बाँध
कुछ ठंडी गुनगुनी -सी धूप रख जाती हो
मेरी खिड़की की सलाखों पर /
पर वो नन्ही-सी जान वहीं पड़ी
काँपती-सी रहती है
और मैं दौड़ आँगन चली आती हूँ
जहाँ तुम आराम से सुस्ताती रहती हो.....
पर देखो न ओस की बूँदों से नहाया ये आँगन
गीला ही रहता है और / मैं
ठंड से काँपती वहीँ अपनी फटी सी चादर में
छुप जाती हूँ
टाँग देती हूँ फिर चादर तुम्हारे आँचल में ताकि
तुम
समा जाओ उसमें अपनी
गर्माहट के साथ और
मैं सो सकूँ
बिना कँपकपाए एक लम्बी-सी सर्द रात .....
ओ जाड़े की धूप कहो न मुझसे
क्यों
हो जाती हो तुम बीमार इन दिनों
जब होती है सबसे ज्यादा जरूरत मुझे...
हाँ तो सुनो......इस बार गर्मियों में तुम
रख लेना सहेजकर कुछ अपने गर्म और सुखद धूप .....
ताकि अगली ठंड में अपनी फटी चादर
गीले से आँगन, अपने सीलन भरे कमरे में
कुछ गर्माहट डाल सकूँ .....
और सो सकूँ एक पूरी लम्बी सर्द रात
बगैर कँपकपाहट के
-0-
3- द्वंद्व
मैं स्वतंत्रता और परतंत्रता के
बीच झूलती
असहाय, किंकर्तव्यविमूढ़-सी
खड़ी हूँ सदियों से
मात्र बन कर एक प्रतीक...
हमेशा की तरह बना दिया
तुमने मुझे देवी और
बाँध दी मेरी आँखों पर पट्टियाँ...
ताकि देख न सकूँ
होते निर्दोषों पर अत्याचार /
देते झूठी गवाहियाँ /
रिश्ते को होते हुए शर्मसार /
बिकते हुए ईमान /
खाते झूठी कसमें...
पर चीखती है मेरी आत्मा
झूठ के ढेर पर
हारते सत्य को देखकर
अच्छाई की लाश पर
जश्न मनाते बुराई को देख कर
रोती हूँ अपने गरीब और
असहाय बच्चों की मजबूरी पर
मेरी आँखों से भी बह निकलते हैं
रक्त के आँसू
पर हो जाते हैं जब्त
उन्ही काली पट्टियों में.....
और मैं तौलती रह जाती हूँ
अपनी ममता और तुम्हारे छल
अपने हाथों की तराजू में....
-0-
पिता रचना वास्तव में काबिलेतारीफ ...हृदयस्पर्शी...बधाई सत्या जी
ReplyDeleteसादर धन्यवाद पूर्णिमा जी यूँ ही मार्गदर्शन करती रहें ।
Deleteआभार
पिता पर इतनी सुन्दर रचना पहली बार पढ़ी । सभी कविताएँ बहुत उम्दा । बधाई कीर्ति जी ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मेरी रचना पसन्द करने हेतु।
Deleteसादर धन्यवाद
बहुत खूबसूरत रचनाएँ।👍👍
ReplyDeleteतहे दिल से आभारी हूँ।
DeletePita or dhup par likhi rachna bahut pasand aayi bahut gahan abhivaykti hai dono hi rachnaon men,dvandh bhi achhi rachna hai sabhi ko badhai.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका , सदा यूँ ही मार्गदर्शन करती रहें ।
Deleteसादर धन्यवाद
पिता बनने की ख्वाहिश...हरेक चाह मन भिगो गई...| जाड़े की धूप भी बहुत बेहतरीन रचना है...और द्वन्द ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया...|
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई इन खूबसूरत रचनाओं के लिए...|
सादर धन्यवाद आपका , हमेशा यूँ ही मार्गदर्शन करती रहें ।
Deleteहार्दिक आभार
बहुत सुंदर कविताएँ! विशेषकर 'पिता' ने दिल को छू लिया!
ReplyDeleteहार्दिक बधाई सत्या जी!!!
~सादर
अनिता ललित
बहुत बहुत धन्यवाद आपका अनीता जी ।
Deleteअपना स्नेह यूँ ही बनाये रखें ।
सादर आभार
बहुत बहुत धन्यवाद आपका अनीता जी ।
Deleteअपना स्नेह यूँ ही बनाये रखें ।
सादर आभार
ओ जाड़े की धूप कहो न मुझसे
ReplyDeleteक्यों हो जाती हो तुम बीमार इन दिनों
जब होती है सबसे ज्यादा जरूरत मुझे...
हाँ तो सुनो......
और मैं तौलती रह जाती हूँ
अपनी ममता और तुम्हारे छल
अपने हाथों की तराजू में....
वाह, बहुत ही सुन्दर, बधाई प्रासंगिक रचनाओं हेतु/
मेरी रचनाओं को पसन्द करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद सदा यूँ ही मार्दर्शन करती रहें ।
Deleteसादर धन्यवाद आपका
मेरी रचनाओं को पसन्द करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद सदा यूँ ही मार्दर्शन करती रहें ।
Deleteसादर धन्यवाद आपका
पिता बहुत बहुत दिल छू गई
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचनाएँ
तहे दिल से आभरी हूँ, सदा यूँ ही मार्गदर्शन करती रहें ।
Deleteसादर धन्यवाद।
तहे दिल से आभरी हूँ, सदा यूँ ही मार्गदर्शन करती रहें ।
Deleteसादर धन्यवाद।
पिता बहुत बहुत दिल छू गई
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचनाएँ
बहुत बहुत धन्यवाद आपका ।
Deleteअपना स्नेह यूँ ही बनाये रखें । सादर आभार
तहे दिल से आभरी हूँ आदरणीय कम्बोज भैया जी कि आपने मेरी रचना को स्थान दिया ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आपका
'पिता' , 'जाड़े की धूप' और' द्वंद्व' .. अनुपम रचनाएँ !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई सत्या जी !!
सादर धन्यवाद आपका ।
Deleteआपका मार्गदर्शन यूँ ही बना रहे ।
बेहद सुंदर तीनों रचनाएँ। विशेष रूप से पिता पर लिखी रचना ने बहुत दिल को छूआ।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई सत्या जी।
बहुत बहुत आभारी हूँ ।
Deleteसादर धन्यवाद
सत्या जी की तीनों ही कवितायेँ सामयिक होने के साथ-साथ मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteपिता के एहसासों का गुणानुगान दिल को छू गया । जाड़े की धूप भी एक मार्मिक रचना है । मात्र एक वस्त्र में जाड़ा गुजारने वाले की पीड़ा भरी है इसमें ।और द्वंद्व का जीवन हर ओर देखा जा सकता है । सत्या जी बहुत उत्तम रचनायों हैं सभी ।हार्दिक बधाई । और ऐसी रचनायों का इन्तजार रहेगा ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteपिता के जज्बात बहुत खूबसूरती से पिरोये हैं सखी ...जाड़े की धूप और द्वंद ह्रदयस्पर्शी रचनाएँ.. हार्दिक बधाई आपको
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