1-राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य
-संजय भारद्वाज
(अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन परिवार)
(अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन परिवार)
भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त
करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति
को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो
उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली
भॉंति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को
हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल
ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी
भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता
रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।
यहॉं तक तो ठीक था।
शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता
उसकी सभ्यता के अनुरुप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और
अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हे वे अपना मानते थे,
अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि
अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए अब भी
खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का "लॉलीपॉप' जरूर दिया गया। धीरे-धीरे "लॉलीपॉप' भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता
गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग
रह गया है।
प्रश्न है कि जब
राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक
डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था जो मूक और अपाहिज हो? विगत
वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर "हॉं' में मिलेगा।
राष्ट्रभाषा को
स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की
चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता
विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहॉं की जा रही
है।
राष्ट्रभाषा शब्द
के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर सामान्य बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की
चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहॉं अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा
से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से
है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस्क़ृति के तत्त्वों को अंतर्निहित
करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से
शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद
व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि
राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते।
हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने
लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत
गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर
दिये जाएँगे? क्या तब भी यह कहा जाएगा कि अपेक्षित
राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु
व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है ,जबकि सुशासन
स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।
सांस्कृतिक
अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है।
राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया- Seeta was sweetheart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल
मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मणजी का
कहना कि मैने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल
की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है।
कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में "चार भिंतीत नाचली' का भाव तलाशने के लिए सारा
यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिए। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
शिक्षा के माध्यम
को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकतर समितियों ने प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में
देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं। त्रिभाषा सूत्र में
हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का
प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू
पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर
हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। जनता से हिंदी
में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ
उठाते हैं।
छोटी-छोटी
बात पर और प्रायः बेबात संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार
करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को
मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई ,तो
बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित
है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद
वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में
"हर-हर महादेव' और "पीरबाबा सलामत रहें' जैसे भावुक (!!!) नारे ही
प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बँधता हो,
व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों
की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो
भावुकता देश के लिए अनिवार्य होनी चाहिए।
वर्तमान में
सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंग्रेज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति
नतमस्तक होता आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो
वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक
के रूप में पूजे जाने लगेंगे।
सामान्यतः
श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का
तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति
भारतीय नागरिक के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने
भाषायी अधिकार के प्रति जागरुक हों। वह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को
राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।
अस्सी के दशक में अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ।
मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से "रोडेशिया' की बजाय "जिम्बॉब्वे'
कहलाएगा। राजधानी "सेंटलुई' तुरंत प्रभाव से "हरारे' होगी।
नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब "इंडिया'की केंचुली उतारकर ‘भारत’ बाहर
आयेगा। आवश्यकता है महानायकों के जन्म की बाट जोहने की अपेक्षा भीतर के महानायक को
जगाने की। अन्यथा भारतेंदु हरिश्चचंद्र की पंक्तियॉं - "आवहु मिलकर रोवहुँ सब भारत भाई, हा! हा! भारत
दुर्दसा न देखन जाई!' क्या सदैव हमारा कटु यथार्थ बनी रहेंगी?
(लेखक के व्याख्यान के संपादित अंश।)
-0-sanjay bhardwaj <writersanjay@gmail.com
-0-
2-हिन्दी-रेनू सिंह
1
भारत के माथे सजी,सदा निखारे रूप।
चमक देख ऐसा लगे,जैसे चढ़ती धूप।।
2
कबिरा वाणी में लिखा,जीवन
का आधार।
कठिन डगर रोशन करे,दोहों का संसार।।
3
मीरा गाती झूमकर,कृष्ण प्रेम के गीत।
तन मन की सुध भूलकर,मिलता
अपना मीत।
4
मधुशाला के छंद में,माटी
की सौगात।
तेरे- मेरे गीत हैं, सुर
हो जैसे सात।
5.
प्रेमचंद ने जो लिखा,
छोड़ा ऐसा रंग।
सबके मानस बस गया,जीने का हर ढंग।
6
दिनकर हमसे कह चले,करो देश पर नाज़।
मातृभूमि के लाल तुम,कर
दिखलाओ आज।।
7
सूरदास के सागर में,कृष्ण
लिये अवतार।
सबके मन को भा रही,महिमा बड़ी अपार।।
8
तुलसी के मानस जगी, सियाराम की जोत।
बनते बिगड़े काम सब,उजियारा जग होत।।
9
दयानंद के लेख में,बड़ी अलौकिक सीख।
मन को जो पावन करे,छोड़ी अपनी लीक।।
10
रहिमन सब से कह रहा,जग
का झूठा मोल।
अपने दुख को भूलकर,मानस मिसरी घोल।।
11
घनानंद के काव्य में,
मिलती मीठी पीर।
मन को यूँ पावन करे,जैसे
शीतल नीर।।
12
चंदरबरदाई अमर,नाम लिखा इतिहास।
रासो वीर रचा
अमर,किया दिलों में वास।।
13
कहे महादेवी यही, सब प्राणी में जान।
ऐसा बंधन प्रेम है, अपना सबको मान।।
14
खुसरो के दिल में बसी,मानवता
की चाह।
मन से मन को जोड़ती,दे दी ऐसी राह।।
15
तारसप्तक ने छोड़ दी, मन
पर ऐसी छाप।
अपनी हिंदी है बड़ी , जान
लीजिए आप।।
16
जन -जन के मानस बसी,इतना
है विस्तार।
कथा-कहानी गीत हो, ,लेखन का विस्तार।।
-0-
राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य संजय जी ने आज की परिस्थितयों बयाँ करता सार्थक सटीक ज्ञानवर्द्धक आलेख से अवगत कराया .
ReplyDeleteसराहनीय है .
रेनू कुमारी जी हिंदी के समसामायिक सुंदर , भावपूर्ण दोहे .
बधाई आप दोनों को
संजय जी बहुत शानदार लेख प्रेरणादायक ....उधारी की जिन्दगी ज्यादा दिन की नहीं होती ..हमारी पीढ़ियां हिन्दी से मुँह मोड़कर कभी उन्नति नहीं कर पाएगी ....नाम मात्र व दिखावे के लिए हिन्दी हिन्दी एक दिन चिल्लाते है ..हर रोज हिन्दी दिवस हो ...आपका ये प्रयास अवश्य सफल होगा ..हार्दिक बधाई आवाज देते रहिए हो सकता है हिन्दी को अपना हक मिल जाए....मुझे लगता है ...हिन्दी बेचारी नहीं हुई हम बेचारे हो गए जो अपनी मातृभाषा को सम्मान नहीं दिला सके...जय हिन्दी
ReplyDeleteरेनू कुमारी जी बहुत सुंदर दोहे हार्दिक बधाई सूरदास जी तुलसीदास जी ,दयानंद जी ,महादेवी जी सभी को शत शत नमन ...हार्दिक बधाई
ReplyDeleteआ.संजय जी मानव मन को धिक्कारता एवं हिन्दी साहित्य उत्थान में अग्रसर पाठकों,रचनाकारों एवं बुद्धिजीवी वर्ग को सचेत करता हुआ सारगर्भित आलेख...उम्दा....
ReplyDeleteरेनू जी बहुत.सुंदर दोहे...
चंदबरदाई है सही शब्द ..जाँच लें..अंतिम दोहा विस्तार शब्द की पुनरावृति से सुंदर नहीं लग रहा...निजी राय है...दूसरी पंक्ति मे आप आधार लिख सकती.हैं....
आ.संजय जी मानव मन को धिक्कारता एवं हिन्दी साहित्य उत्थान में अग्रसर पाठकों,रचनाकारों एवं बुद्धिजीवी वर्ग को सचेत करता हुआ सारगर्भित आलेख...उम्दा....
ReplyDeleteरेनू जी बहुत.सुंदर दोहे...
चंदबरदाई है सही शब्द ..जाँच लें..अंतिम दोहा विस्तार शब्द की पुनरावृति से सुंदर नहीं लग रहा...निजी राय है...दूसरी पंक्ति मे आप आधार लिख सकती.हैं....
संजय जी बहुत बढ़िया प्रेरणाप्रद लेख। रेनू जी बहुत सुन्दर भावपूर्ण दोहे। आप दोनों को हार्दिक बधाई!
ReplyDelete
ReplyDeleteप्रेरणादायक व ज्ञानवर्धक आलेख !!!
सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो सकती। ....
.एकदम सही संजय जी, हम सबको जागरूक होना ही है |हर रोज हिन्दी दिवस होना चाहिए |
रेनू जी बहुत.सुंदर दोहे !!
आप दोनों को हार्दिक बधाई!
संजय जी को हिन्दी भाषा पर बहुत सुन्दर लेख के लिए तथा रेनू जी को बहुत सुंदर दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई। रेणु चन्द्रा
ReplyDeleteसंजय जी को हिन्दी भाषा पर बहुत सुन्दर लेख के लिए तथा रेनू जी को बहुत सुंदर दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई। रेणु चन्द्रा
ReplyDeleteहिन्दी -राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य ,संजय भारद्वाज जी का एक सारगर्भित आलेख है । आज हमारी हिन्दी भाषा को हाशिये पर पहुँचा कर भारतीय सभ्यता -संस्कृति को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा जा चुका हैं । हमसब उसका हिस्सा बनते जा रहे हैं ।हमें चेताता लेख । बधाई संजय भाई । रेनू जी के हिन्दी-भाषा पर सुंदर दोहे । बधाई रेनू जी ।
ReplyDeleteहिन्दी -राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य ,संजय भारद्वाज जी का एक सारगर्भित आलेख है । आज हमारी हिन्दी भाषा को हाशिये पर पहुँचा कर भारतीय सभ्यता -संस्कृति को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा जा चुका हैं । हमसब उसका हिस्सा बनते जा रहे हैं ।हमें चेताता लेख । बधाई संजय भाई । रेनू जी के हिन्दी-भाषा पर सुंदर दोहे । बधाई रेनू जी ।
ReplyDeleteBahut sargarbhit lekhan ke liye meri hardik badhai...dohe bhi eak se badhkar rak hai aneko dhubhknaye...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, सारगर्भित लेख!
ReplyDeleteइतने सारे कवियों/लेखकों पर लिखे गए दोहे भी बहुत बढिया !
आप दोनों को हार्दिक बधाई !!!
~सादर
अनिता ललित
संजय जी, अपने आलेख के माध्यम से आपने बहुत सटीक सवाल उठाए हैं...| पर भावुकता कह कह कर बहुत सारी ज़रूरी मसलों को नकार देने वाले इस संवेदनहीन समाज में कभी इन प्रश्नों के हल मिलेंगे भी, इसमें तो संदेह है...| पर अगर कुछ संवेदनशील लोग ही अपने स्टार पर प्रयास जारी रखें, तो संभवतः कभी ये प्रश्न हल्हो ही जाएँ...| एक सार्थक लेख के लिए बहुत बहुत बधाई...|
ReplyDeleteरेनू जी, आपके दोहे बहुत सुन्दर हैं...| आपको हार्दिक बधाई...|