साधना मदान
ऐसा क्यों लगता
है कि आज बच्चे,जवान और बूढ़ों के लिए बातचीत एक
बीमारी बनती जा रही। हर व्यक्ति जैसै यह जिद्द पकड़ कर बैठा है कि वह अपनी बातों से यह सिद्ध करेगा कि केवल वह सही सोचता है, वह ही सही करता है और वह ही बात करना जानता है। इसलिए वह बातों का सहारा लेता है। एक प्रश्र ज़हन में उठता है कि आख़िर इतनी बातें क्यों? बातें करना शायद श्रम करने से ज़्यादा प्रिय काम है। काम करना,व्यस्त रहना,स्वयं को ही कोई लक्ष्य देकर अपने मौलिक चिंतन में मग्न रहना, सकारात्मक सोच; ये कुछ ऐसी दवाइयाँ हैं,जो बातों की बीमारी का इलाज हो सकती हैं। कभी -कभी व्यक्ति बहुत बातें अपने अहं की तुष्टि के लिए भी करता है। अपने वजूद में शायद कहीं कुछ जैसे बह -सा गया है। वे अपनी बातों में प्रशंसा की चाशनी में लपेटते रहते हैं। बातें बढ़ती तब हैं ,जब हम बीती बातों में उलझते हैं।
बीमारी बनती जा रही। हर व्यक्ति जैसै यह जिद्द पकड़ कर बैठा है कि वह अपनी बातों से यह सिद्ध करेगा कि केवल वह सही सोचता है, वह ही सही करता है और वह ही बात करना जानता है। इसलिए वह बातों का सहारा लेता है। एक प्रश्र ज़हन में उठता है कि आख़िर इतनी बातें क्यों? बातें करना शायद श्रम करने से ज़्यादा प्रिय काम है। काम करना,व्यस्त रहना,स्वयं को ही कोई लक्ष्य देकर अपने मौलिक चिंतन में मग्न रहना, सकारात्मक सोच; ये कुछ ऐसी दवाइयाँ हैं,जो बातों की बीमारी का इलाज हो सकती हैं। कभी -कभी व्यक्ति बहुत बातें अपने अहं की तुष्टि के लिए भी करता है। अपने वजूद में शायद कहीं कुछ जैसे बह -सा गया है। वे अपनी बातों में प्रशंसा की चाशनी में लपेटते रहते हैं। बातें बढ़ती तब हैं ,जब हम बीती बातों में उलझते हैं।
अपने साथ अपने सम्बन्धियो के
व्यवहार को याद करना भी बातों की ललक को बढ़ावा देना है। कभी -कभी हम अपनी
जिम्मेदारी से यहाँ -वहाँ सरकते हैं या काम से पल्ला छुड़ाने के रास्ते ढूँढते हैं।तब
लच्छेदार बातों से शायद अपने आलसीपन को सहलातें हैं।बातों का नशा भी तो एक बीमारी
से कम नहीँ। निरंतर बातें और उन बातों का नतीजा क्या होगा वह
नशे जैसा ही तो है। बातों का भूत जब चिपटता है तो वह बीमार करके ही छोड़ता
हैं।
व्यक्ति जब अपनी आत्मिक शक्ति
खोने लगता है ,तब भी व्यक्ति बातों के संक्रमण से अछूता नहीं रह पाता । स्वभाव में
नकारात्मकता भी बातों की गलियों में भटकने जैसा है। दूसरों की कमी -कमजोरी तो बातों में जैसे चार चाँद लगा देती है।इस बीमारी में निंदा तो
मीठे-मीठे दर्द का अहसास कराती है। आज के जादुई तंत्र-मंत्र-यंत्र का तो सबको पता ही हैँ...मोबाइल फोन, फेस बुक,इंटरनेट और वॉट्स एप ये संगी -साथी साथ हों तो बातों
के विषाणु फैलते देर नहीं लगती। बातों का चक्रव्यूह लू के थपेड़ों जैसा हमें
आहत करता रहता है। ज्यादा बातें बातचीत के आनन्द को कम कर देती हैं। विचार- विमर्श हो या फिर चाटुकारी या गपशप ये तो संग साथ के स्वाद है; पर बहुत बातें तो अपच का काम करती है । जब कभी बच्चों की कक्षा का चक्कर
लगाती हूँ ,तो सब तरफ बतियाने की ही हवा का अहसास होता है।
ज्यादा बातें भी बच्चों की
एकाग्रता भंग करने का कारण होती हैं। कक्षा आदि में बातें जहाँ बालमन के मेल -मिलाप में सामाजिकता का रंग भरती हैं; वहीं ज्यादा
बातें बच्चों को कक्षा में बातूनी भी बना देती है।यह सच है कि चुलबुली बातें बचपन की अमूल्य सौगात होती हैं ; पर बातें ही बातें बच्चों को यहाँ
वहाँ डाँट ही खिलाती हैँ। शायद इसका कारण भी हम बड़े ही हैं।बड़े भी जब दिन-रात बातों की चक्करी चलाते हैं ; तो बच्चे भी इस
चक्करी में झूलते हैं। किशोरावस्था की भी बातें मौज- मस्ती
के वसंत जैसी होती हैं। यह उम्र ही सच पूछो तो बातों पर खुलकर ठहाके लगाने की कला जानती है ;पर
समस्या तब आती है ,जब यही बातें
घुमावदार रास्तों की तरह जिंदगी को उलझा देती हैं। कहते हैं साठ वर्ष के बाद वानप्रस्थ
अवस्था को स्वीकार करो। काश वानप्रस्थ का भाव वाणी से परे हो जाना ही होता। जितना
कम बोलेंगे ,उतने ही कम सुझाव, उतने ही
अनुभवों के किस्से कम छेड़ेंगे। कम बात वालों के अनुभव और सुझाव में बड़ा वज़न होता
है। ऐसे जीवन के अभ्यास से हम मानसिक तनाव की गिरफ्त से बच सकते हैं।
जीवन रहते मधुर वाणी की तान
से अपनी स्वर लहरी जोड़ लें तो बातों की गूँज व्यर्थ नही ,समर्थ
बन जाएगी। पर यह बीमारी तो हमें अपनों से दूर ले जाती है। अब इस बीमारी से निज़ात
भी पाना जरूरी है। सबसे पहले अपनी दिनचर्या पर जाँच रखना जरूरी है।सारा दिन क्या-
क्या करना है। अपने लिए योगासन ,सैर , ध्यान
,अपने शौक अथवा पठन -पाठन ये सब काम हम अपनी खुशी से करते या
नहीं। फोन की बातों से बचने का अभ्यास भी आवश्यक है। मन से सकारात्मक बातचीत की
आदत भी इस बीमारी से राहत पाने तरीका
हो सकती है।बीती को बिंदु लगाना और ‘न काहू से दोस्ती न काहू
से बैर’ का मंत्र समझने का
अभ्यास।
सच्चे मित्र एक दूसरे को व्यर्थं के वार्तालाप से किनारा करना सिखाते
हैं। जहाँ नकारात्मक बातें और अति बातूनी होना हानिकारक होता है ,वहीं सकारात्मक बातें संजीवनी के समान होती है।वृद्धों की बातचीत उनमें
ताज़गी भरती है।जब पुत्र अपने वृद्ध पिता के साथ बैठकर बातें करता है, तो पिता के लिए वह सुकून देने वाला होता है। बातें
करना, कुछ तुमने कही, कुछ मैने सुनी,
अपने दिल को हलका करना हो तो हाले- दिल बयाँ
करना किसी भी हाल में अच्छा ही है।अपनी खुशी की अभिव्यक्ति भी बातों की शहनाई से ही गूँजती है पर बातों का
चस्का तो बदहाल ही करता है। कई बार नासमझी भी बातों के पासे खेलने से नहीं चूकती।
जब अपनों से अपनों की सार्थक
बात होगी
सकारात्मक सोच से तभी मुलाकात होगी
जब बीती बातों को लग जाए पूर्ण
विराम
तब ही बातों
की बीमारी की मात होगी।
-0-
साधना मदान
प्रवक्ता हिंदी ,कुलाची हंसराज मॉडल स्कूल,अशोकविहार दिल्ली- 110052
(चित्र :गूगल से साभार)
बहुत ही सुन्दर लघु लेख साधना जी । आप ने आज का सच बहुत सरल,सहज एवं सार्थक शब्दों में कहा है। एक अच्छे लेख के लिए बधाई ।
ReplyDeleteबहुत सही आकलन...नकारात्मक बातें और अति बातूनी होना हानिकारक होता है ,वहीं सकारात्मक बातें संजीवनी के समान होती है...बधाई साधना जी को !
ReplyDeleteBahut sateek lekh likha aapne bahut bahut badhai...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक लेख....बहुत-बहुत बधाई आपको!
ReplyDeleteबातें जीवन में बहुत जरुरी होती हैं।अधिक बातूनी होना और मौनी बाबा बनना दोनों ही स्थिति घातक होती है।बातें करते समय एक संतुलन बनाकर रखना जरुरी होता है। समय निकालकर घर परिवार के बुज़ुर्गों के साथ बातें अवश्य करनी चाहिए।
ReplyDeleteसुन्दर लेख के लिए बधाई।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-05-2015) को "आशा है तो जीवन है" {चर्चा अंक - 1979} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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बहुत ज्यादा बातें इंसान की छवि को ख़राब कर देती है कम बोल कर आप बहुत कुछ कह सकते है । सुन्दर लेख |
ReplyDeleteबेहतरीन लेख कुंठा भी एक वजह हो जाती है बेवजह बोलते रहने की
ReplyDeleteसुन्दर ,सार्थक ,विचारणीय प्रस्तुति !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई !!
सुन्दर ,सार्थक ,विचारणीय लेख!
ReplyDeleteसाधना जी अभिनंदन!
सच जिनको देखो वही बतियाता फिरता देखा जाता है हरदम ...आज का खतरनाक रोग है बतौले बाजी ....
ReplyDeleteविचारशील प्रस्तुति
बहुत अच्छा आकलन करता आलेख...हार्दिक बधाई...|
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