कविता में दर्शन, दर्शन में कविता
डा. सुरेन्द्र
वर्मा
‘झाँका भीतर’ -भीतर की ओर ताँक-झाँक करता एक ताँका-संग्रह है जिसमें
कवियित्री डा. कुसुम रामानंद बंसल ने अपने अंतर-मन के दार्शनिक की काव्यमय प्रस्तुति
प्रदान की है. तांका हाइकु परिवार का ही एक सदस्य है और हिन्दी के हाइकु-उन्मुख कवियों
में यह खासा लोकप्रिय होता जा रहा है. यह आकार में हाइकु से थोड़ा बड़ा है. इसमें हाइकु
की 5-7-7 वर्णों की तीन पंक्तियों के अलावा अंत में 7-7-वर्ण की दो पंक्तियाँ और जोड़
दी जाती हैं. हाइकु को उसके लघुकाय आकार के कारण अक्सर एक-श्वासी कविता कहा गया है.
डा. बंसल अपनी बेजोड़ भाषा में कहती हैं, “गहरी शान्ति चारो ओर बिखरी हो, तो अक्सर मन करता है कि लम्बी
लम्बी दो साँसें और ले लो. हाइकु से ताँका तक
पहुँचने का यही कमाल है.” एक श्वासी कविता लिखने के बाद दो लम्बी लम्बी साँसें लेती
हैं और ताँका तक पहुँच जाती हैं ! काव्याभिव्यक्ति इसी को कहते हैं.
डा. कुमुद बंसल ने दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर
उपाधि प्राप्त की है. दर्शनशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन तो मैंने भी वर्षों-वर्ष किया
है फिर भी आज तक दार्शनिक नहीं हो पाया; किन्तु डा. कुमुद ने दर्शन को जिया है और वे
सच्चे अर्थ में दार्शनिक हैं, और साथ ही कवि भी! दर्शन का और कविता का क्या कोई भावात्मक
सम्बन्ध है? पाठ्य पुस्तकों में दर्शन के छात्रों को प्राचीन भारतीय दर्शन की तथा-कथित
‘विशेषताएं’ बताई जाती हैं. इन विशेषताओं की संख्या 10-12 तक पहुँच
जाती है. लेकिन मैंने आजतक भारतीय-दर्शन की एक अन्य विशेषता के बारे में किसी पाठ्य पुस्तक में नहीं पढ़ा ,जिसकी ओर संकेत
शायद पहली बार डा. देवराज ने किया है. उन्होंने बताया, और बिलकुल सही बताया, कि प्राचीन
भारतीय दर्शन कविता से बड़े घनिष्ट रूप से सम्बंधित रहा है. यहाँ तर्क-शास्त्र तक कविता
में लिखा गया है. श्लोकों और मंत्रों से हमारा दर्शन भरा पड़ा है और इन काव्य रूपों
ने हमारे दर्शन को संपन्न किया है. लेकिन हिन्दी में सूत्रों और पदों में दर्शन की
काव्या- भिव्यक्ति कहीं लुप्त- सी हो गई. क्या इसे फिर से प्राप्त किया जा सकता है?
डा. कुमुद से यदि यह प्रश्न पूछ लिया जाए तो संभवत: वे उसका एक सकारात्मक उत्तर दे
सकें.
डा. कुमुद रामाकांत बंसल अपने दार्शनिक अभिगमन
में “अहम् ब्रह्मास्मि” सूत्र में आस्था रखती हैं. उनके अनुसार आप इस गहरे सूत्र
में जितना ही उतरें उतना ही विस्मृत करने वाली अनुभूति आपको प्राप्त होती है. “जो पिंड
वही ब्रह्माण्ड, जो ब्रह्माण्ड वही पिंड”. लेकिन यह निर्वैयक्तिक ब्रह्म एक व्यक्ति से कैसे जुड़े
? समस्या यहीं खड़ी होती है! ब्रह्म की खोज में अधिकतर जिज्ञासुओं ने ब्रह्म को मूर्तिमान
कर उसका मानवी- करण कर लिया है. अब यह “ब्रह्म” प्रियतम बन गया है जिसकी खोज में जिज्ञासु निकल पड़ा/पड़ी
है. कुमुद जी की भी यही खोज है –
सब में वास
सबसे है वो न्यारा
हे मेरी सखी
ढूँढ़ रही हूँ उसे
ढूँढ़ रही हूँ उसे
देखा क्या पिया प्यारा ...
और यह खोज इतनी विचलित और व्यग्र
करने वाली है कि आँखों से नींद गायब हो गयी है, और बेचैनी बढ़ती चली जा रही है. पत्र
लिखती हूँ लेकिन किसे कहाँ पहुँचाऊँ? पता न ठिकाना –
नींद न नैन
नहीं है अंग चैन
लिखी है पाती
कैसे पहुँचाऊँ रे
नहीं है अंग चैन
लिखी है पाती
कैसे पहुँचाऊँ रे
ऊंची पिटारी पिया...
उसे पाने की उत्कंठा इतनी तीव्र
है की मानो सागर से मिलने के लिए कोई नदी बड़े वेग से बह रही हो. सारा धैर्य धरा का
धरा रह गया है, सारी परम्पराएं सारे तटबंध तोड़ने तक के लिए वह तत्पर देखी जा सकती है
–
सागर ओर
वेग से बहती
अधीर नदी
तटबंध तोड़ के
ज्ञात पथ छोड़ के...
वह बेशक अज्ञात है लेकिन इतना अज्ञात भी नहीं कि वह कभी अनुभव में ही न आए. सच तो यह है कि वह न तो छिपता है और न ही सामने आता है। शायर की मानें, चिलमन से लगा बैठा है-
कभी झाँकते
कलियों की ओट से
कभी छिपते
चन्दन, पुष्प, रोली
छोड़ो आँख-मिचौली
उनकी खुश्बू मेरी देह, मेरे प्राणों को अपनी ओर खीचती है। समझ में नहीं आता, मैं करूं तो क्या करूं? राह मुश्किल और पथ बीहड़ है और रास्ता है कि जितना ही आगे चलते जाओ उतनी ही मंजिल दूर होती जाती है-
दुर्गम पथ
पैरों पड़ी बेड़ियाँ
जी घबराता
दिन–रैन चलूँ मैं
पथ न अंत पाता...
कभी लगता है कि प्रिय मेरा सामने ही खडा है और मैं अचम्भे से भर उठती हूँ, लेकिन पलक झपकते ही वह गायब भी हो जाता है–
सामने मार्ग
पड़े नहीं दिखाई
अचंभित मैं
पलकें झपकाईं
न 'तू' है और न 'मैं' ...
अंतत; हार कर पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं बचता। अब तो 'मेरे भीतर / जो छिपकर बैठा / वही संभाले।' गालियाँ दे, कोड़े बरसाए पर मेरा मन भी 'ढीठ है / तेरी हर इच्छा पर / झूम झूम डोले' । अब तो जिद ठान ली है, 'लग गई है लौ / लगी नहीं छूटेगी' । 'वो' ही पवन (है) / 'वो' ही धरा गगन / क्या दूँ मैं उसे? ' और क्या भूलूं?–
तेरे सामने
ऋषि भूला ऋचाएँ
हंस तैरना
कोयल भूली कूक
मैं निर्गुण क्या भूलूँ...
तुम जो मिले / जन्म-जन्म के पले / प्रारब्ध जले । झांका भीतर / खुले ह्रदय द्वार। ढूँढा नभ में / ढूँढ़ती भूतल में ...हक्की बक्की हुई मैं / पाया कण-कण में। अनसुने नाद से / गूँज उठे हैं कर्ण। गूँज रही रागिनी / भव-सिन्धु तारिणी। उपलब्धि का क्षण भुलाए नहीं भूल सकता।
डा. कुमुद रामानंद बंसल की यह खोज प्रिय की तलाश से शुरू होकर उसकी आत्मानुभूति (झाँका भीतर / खुले ह्रदय द्वार) में समाप्त होती है। पर समाप्त भी कहाँ होती है। यह तो एक निरंतर प्रक्रिया है। प्रिय की झलक ही तो मिल पाती है। अनंत की खोज में कुमुद जी 'अभी और यहाँ' जो क्षण है उसे नहीं भूलतीं। एक ही तो पल में बीत जाएगा यह पल 'जियूँ इस पल में'–
नहीं प्रतीक्षा
है कल की खुशी की
आज हँसती
किसने देखा कल
हँसती हर पल
डा. कुमुद कवयित्री तो हैं ही विदुषी भी हैं। उनकी कविताएँ उनकी विद्वत्ता कि चुगली करती हैं। उपनिषद् कहता है पूर्ण में कुछ भी घटाओ या जोड़ो वह पूर्ण ही रहता है। यही अंदाज़ कुमुद जी का भी है।
शून्य में डूब
शून्य से एक हुई
शून्यता बची
चकित-विस्मित हूँ
बिन ॠतु फूल हैं।
विरहिणी का यह विलाप किसने नहीं सुना है? 'लकड़ी जल कोयला भई, कोयला जल भई राख–मैं बिरहन ऐसी जली कोयला भई न राख।' कुसुम जी लिखती हैं,
जल बनता
शीत में बर्फ और
ग्रीष्म में भाप
मैं मुई ऐसी भई
बर्फ हुई न भाप
डा. कुसुम रामानंद बंसल अपनी सभी पुस्तकों की साज-सज्जा पर विशेष ध्यान देती हैं। पेपर और मुद्रण अला दर्जे का है। वर्तनी के दोष नगण्य हैं। यह पुस्तक, 'झांका भीतर' भी अपवाद नहीं है। बेतरीन उत्पाद है। हाइकु और उससे जुडी विधाओं में प्रवेश के लिए कुसुम जी को बधाई और शुभकामनाएँ।
वेग से बहती
अधीर नदी
तटबंध तोड़ के
ज्ञात पथ छोड़ के...
वह बेशक अज्ञात है लेकिन इतना अज्ञात भी नहीं कि वह कभी अनुभव में ही न आए. सच तो यह है कि वह न तो छिपता है और न ही सामने आता है। शायर की मानें, चिलमन से लगा बैठा है-
कभी झाँकते
कलियों की ओट से
कभी छिपते
चन्दन, पुष्प, रोली
छोड़ो आँख-मिचौली
उनकी खुश्बू मेरी देह, मेरे प्राणों को अपनी ओर खीचती है। समझ में नहीं आता, मैं करूं तो क्या करूं? राह मुश्किल और पथ बीहड़ है और रास्ता है कि जितना ही आगे चलते जाओ उतनी ही मंजिल दूर होती जाती है-
दुर्गम पथ
पैरों पड़ी बेड़ियाँ
जी घबराता
दिन–रैन चलूँ मैं
पथ न अंत पाता...
कभी लगता है कि प्रिय मेरा सामने ही खडा है और मैं अचम्भे से भर उठती हूँ, लेकिन पलक झपकते ही वह गायब भी हो जाता है–
सामने मार्ग
पड़े नहीं दिखाई
अचंभित मैं
पलकें झपकाईं
न 'तू' है और न 'मैं' ...
अंतत; हार कर पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं बचता। अब तो 'मेरे भीतर / जो छिपकर बैठा / वही संभाले।' गालियाँ दे, कोड़े बरसाए पर मेरा मन भी 'ढीठ है / तेरी हर इच्छा पर / झूम झूम डोले' । अब तो जिद ठान ली है, 'लग गई है लौ / लगी नहीं छूटेगी' । 'वो' ही पवन (है) / 'वो' ही धरा गगन / क्या दूँ मैं उसे? ' और क्या भूलूं?–
तेरे सामने
ऋषि भूला ऋचाएँ
हंस तैरना
कोयल भूली कूक
मैं निर्गुण क्या भूलूँ...
तुम जो मिले / जन्म-जन्म के पले / प्रारब्ध जले । झांका भीतर / खुले ह्रदय द्वार। ढूँढा नभ में / ढूँढ़ती भूतल में ...हक्की बक्की हुई मैं / पाया कण-कण में। अनसुने नाद से / गूँज उठे हैं कर्ण। गूँज रही रागिनी / भव-सिन्धु तारिणी। उपलब्धि का क्षण भुलाए नहीं भूल सकता।
डा. कुमुद रामानंद बंसल की यह खोज प्रिय की तलाश से शुरू होकर उसकी आत्मानुभूति (झाँका भीतर / खुले ह्रदय द्वार) में समाप्त होती है। पर समाप्त भी कहाँ होती है। यह तो एक निरंतर प्रक्रिया है। प्रिय की झलक ही तो मिल पाती है। अनंत की खोज में कुमुद जी 'अभी और यहाँ' जो क्षण है उसे नहीं भूलतीं। एक ही तो पल में बीत जाएगा यह पल 'जियूँ इस पल में'–
नहीं प्रतीक्षा
है कल की खुशी की
आज हँसती
किसने देखा कल
हँसती हर पल
डा. कुमुद कवयित्री तो हैं ही विदुषी भी हैं। उनकी कविताएँ उनकी विद्वत्ता कि चुगली करती हैं। उपनिषद् कहता है पूर्ण में कुछ भी घटाओ या जोड़ो वह पूर्ण ही रहता है। यही अंदाज़ कुमुद जी का भी है।
शून्य में डूब
शून्य से एक हुई
शून्यता बची
चकित-विस्मित हूँ
बिन ॠतु फूल हैं।
विरहिणी का यह विलाप किसने नहीं सुना है? 'लकड़ी जल कोयला भई, कोयला जल भई राख–मैं बिरहन ऐसी जली कोयला भई न राख।' कुसुम जी लिखती हैं,
जल बनता
शीत में बर्फ और
ग्रीष्म में भाप
मैं मुई ऐसी भई
बर्फ हुई न भाप
डा. कुसुम रामानंद बंसल अपनी सभी पुस्तकों की साज-सज्जा पर विशेष ध्यान देती हैं। पेपर और मुद्रण अला दर्जे का है। वर्तनी के दोष नगण्य हैं। यह पुस्तक, 'झांका भीतर' भी अपवाद नहीं है। बेतरीन उत्पाद है। हाइकु और उससे जुडी विधाओं में प्रवेश के लिए कुसुम जी को बधाई और शुभकामनाएँ।
(समीक्षा, ‘झांका भीतर’/ ताँका-संग्रह: डा. कुमुद रामानंद बंसल., अनुभव प्रकाशन ई-28, लाजपत नगर, साहिबाबाद
उ,प्र.-201705)
एक उत्तम 'ताँका-संग्रह' की अतिउत्तम समीक्षा ! एक लेखक/कवि की उपलब्धि यही है कि उसकी रचना का मर्म पाठकों तक पहुँचे। जितने सुंदर ताँका है, आदरणीय डॉ सुरेन्द्र वर्मा जी की क़लम से उनकी उतनी ही सुंदर व्याख्या हुई है।
ReplyDeleteडॉ कुमुद बंसल जी को तथा डॉ सुरेन्द्र वर्मा जी को बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।
~सादर
अनिता ललित
सुन्दर समीक्षा!
ReplyDeletebahut hi sundar tanka ..is behtreen sangrah ke liye badhayi shubhkamnaye :)
ReplyDeleteसुन्दर ,गहन भाव भरे 'ताँका-संग्रह' की बहुत सारगर्भित समीक्षा ! आदरणीय डॉ. सुरेन्द्र वर्मा जी एवं डॉ. कुमुद बंसल जी को उत्कृष्ट प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई ,शुभ कामनाएँ !
ReplyDeleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
ताँका संग्रह की बहुत उत्कृष्ट समीक्षा की है सुरेन्द्र जी ने. न सिर्फ समीक्षा बल्कि विश्लेषण भी बहुत उम्दा है. सुरेन्द्र जी ने कितने सुन्दर शब्द में कुमुद जी एवं उनकी रचनाओं की प्रशंसा की है ''डा. कुमुद कवयित्री तो हैं ही विदुषी भी हैं. उनकी कविताएँ उनकी विद्वत्ता की चुगली करती हैं.'' आप दोनों को हृदय से बधाई.
ReplyDeleteकितनी खूबसूरती से ये समीक्षा लिखी गई है...इसके लिए तो वर्मा जी निःसंदेह बधाई के पात्र हैं...|
ReplyDeleteकुमुद जी के तांका अपने में बहुत गहरे भाव समेटे हुए हैं...| इस उत्कृष्ट संग्रह के लिए उनको भी बहुत बधाई और शुभकामनाएँ...|
saargarbhit tatha khoobsurat samiksha... .aadarniy dr.surendr verma ji evam dr.kumud bansal ji ko sashakt prastuti ke liye haardik badhai .
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