पथ के साथी

Monday, January 20, 2020

945-सारे बन्धन भूल गए

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'  

स्नेह सिंचित
सारे सम्बोधन  
याद रहे
काँटों ने कितना  बींधा
वह चुभन भूल गए
          चुपके से  
रक्ताभ हथेली को छूकर
अधरों से  जो चूम लिया
वह याद रहा
लोगों की विष-बुझी जीभ के सारे
 वर्जन-तर्जन भूल गए ।
भूल गए  अब  राहें  
अपने सपन गाँव की,
गिरते- पड़ते पगडंडी की
फिसलन भूल गए
सूखी बेलें अंगूरों की ,
माँ-बाप गए तो;
रापूरा कोलाहल  से अपना
आँगन भूल गए।
गाँव -देश की माटी छूटी
छूटे सम्बन्धों के अनुबंध,
छली-कपटी
और परम आत्मीय
सबसे दूर हुए ।
उधड़े रिश्ते बहुत टीसते
सुख का कम्पन भूल गए।
दीवारें हैं,
चुप्पी है,
बेगानी धरती
अपनी ही छाया है संग में
धूप -किरन सब  भूल गए
सब कुछ भूले,
पर स्पर्श तुम्हारा
छपा तिलक-सा
किसने कितना हमें सताया
झूठे नर्तन भूल गए ।
परहित का आनन्द क्या होता
लोग न जाने
भीगे नयनों को जब चूमा
तो सारे दर्पन भूल गए
एक किरन
नयनों में अब भी जाग रही है-
तुझसे मिलने की आशा में
सारे बन्धन भूल गए

17 comments:

  1. बेगानी धरती
    अपनी ही छाया है संग में
    धूप-किरण सब भूल गए ।

    उधड़े रिश्ते बहुत टीसते
    कविता का एक एक शब्द मन को छू गया।भावपूर्ण अति सुंदर सृजन भैया।हार्दिक बधाई

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  2. सूखी बेले अंगूरों की
    माँ बाप गये तो
    भरा पूरा कोलाहल से अपना
    आँगन भूल गये

    कितनी टीस है इन पंक्तियों में ।मन भावुक हो गया ।सुन्दर सृजन के लिए बधाई भैया जी ।

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  3. भूल गए  अब  राहें  
    अपने सपन गाँव की,
    गिरते- पड़ते पगडंडी की
    फिसलन भूल गए ।
    बहुत मार्मिक कविता । गहन संवेदना की वाहक कविता के लिए हार्दिक बधाई लें भाई ।

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    Replies

    1. गाँव -देश की माटी छूटी
      छूटे सम्बन्धों के अनुबंध,
      छली-कपटी
      और परम आत्मीय
      सबसे दूर हुए ।
      उधड़े रिश्ते बहुत टीसते
      सुख का कम्पन भूल गए।..कितना सटीक लिखा है। सुंदर कविता।

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  4. चुपके से रक्ताभ हथेली को छूकर
    अधरों से जो चूम लिया
    वह याद रहा
    लोगों की विष-बुझी जीभ के सारे
    वर्जन-तर्जन भूल गए |
    बहुत ही सुन्दर रचना है भाई काम्बोज जी हार्दिक बधाई स्वीकारें |

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  5. सारे नकारात्मक को विस्मृत कर अच्छे को स्मृति में सहेज लेना कितना मुश्किल काम है फिर भी ऐसा हो पाए तो कितना नेक विचार है। बहुत सुंदर भाव गीत के, और शब्दावली भी ऐसी है कि ठहर कर शब्दों की सुंदरता देखते बनती है। बधाई।

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  6. अत्यंत मर्मस्पर्शी एवम भावों से परिपूर्ण अभिव्यक्ति! बधाई स्वीकारें भाई साहब।
    उधड़े रिश्ते बहुत टीसते,अपनी ही छाया है संग में,परहित का आनन्द क्या होता,सूखी बेलें अंगूरों की....बहुत ही सुंदर!!

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  7. दीदी सुदर्शन रत्नाकर जी,सुरंगमा जी, विभा जी रश्मि शर्मा जी और सविता अग्रवाल जी हार्दिक आभार

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  8. प्रत्येक पंक्ति मन को छूती गई....हृदयस्पर्शी भावपूर्ण कविता
    बहुत ही सुन्दर सृजन सर... हार्दिक शुभकामनाएँ

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  9. वाह क्या बात आपकी सर!
    दीवारें हैं,
    चुप्पी है,
    बेगानी धरती
    अपनी ही छाया है संग में
    धूप -किरन सब भूल गए

    पूरी रचना अंत:करण को स्पन्दित करती हुई बेजोड़ है।नमन

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  10. एक-एक शब्द ... मन को भिगो गया! निःशब्द कर गया!
    आपको एवं आपकी लेखनी को सादर नमन आदरणीय भैया जी!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  11. बेजोड़ मर्मस्पर्शी रचना, एक-एक शब्द ने हृदय को छू लिया। हार्दिक बधाई भाईसाहब।

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  12. कृष्णा जी,अनिता ललित, डॉ पूर्णिमा राय,डॉ पूर्वा शर्मा , अनिता मण्डा और प्रीति अग्रवाल जी आप सबका बहुत-बहुत आभार !! रामेश्वर काम्बोज

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  13. आँगन भूल गए।
    गाँव -देश की माटी छूटी
    छूटे सम्बन्धों के अनुबंध,
    छली-कपटी
    और परम आत्मीय
    सबसे दूर हुए ।
    उधड़े रिश्ते बहुत टीसते
    सुख का कम्पन भूल गए।

    bahut marmik abhivyakti hai bhaiya sadar pranam hraday ko chu liya kavita ne ..

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  14. मन में छिपे दर्द को उकेरती और उसी दर्द से निजात पाकर विजयी होने के भावों से भरी उत्कृष्ट रचना है ये !
    सूखी बेलें अंगूरों की ,
    माँ-बाप गए तो;

    सब कुछ भूले,
    पर स्पर्श तुम्हारा
    छपा तिलक-सा

    वाह !

    आपको तथा आपकी लेखनी को सादर नमन आदरणीय !

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  15. अद्भुत सृजन भैया जी

    सब कुछ भूले,
    पर स्पर्श तुम्हारा
    छपा तिलक-सा
    किसने कितना हमें सताया
    झूठे नर्तन भूल गए ।

    मन को छूती भावपूर्ण कविता

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  16. हृदयस्पर्शी रचना आदरणीय

    हर पंक्ति में कई छूती है

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