डॉ.
कविता भट्ट
हे०न०ब०गढ़वाल
विश्वविद्यालय
श्रीनगर
(गढ़वाल), उत्तराखंड
1-किसको जलाया जाए
जब सरस्वती दासी बन; लक्ष्मी का वंदन करती
हो
रावण के पदचिह्नों का नित अभिनन्दन करती
हो
सिन्धु-अराजक, भय-प्रीति दोनों ही निरर्थक हो
जाएँ
और व्यवस्था सीता- सी प्रतिपल लाचार सिहरती हो
अब बोलो राम! कैसे आशा का सेतु बनाया जाए
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जाए
जब आँखें षड्यंत्र बुनें; किन्तु अधर मुस्काते हों
भीतर विष-घट, किन्तु शब्द प्रेम-बूँद छलकाते
हों
अनाचार-अनुशंसा में नित पुष्पहार गुणगान करें
हृदय ईर्ष्या से भरे हुए, कंठ मुक्त प्रशंसा
गाते हों
चित्र ; गूगल से साभार |
क्या मात्र, रावण-दहन का झुनझुना बजाया जाए
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जाए
विराट बाहर का रावण, भीतर का उससे भी भारी
असंख्य शीश हैं, पग-पग पर, बने हुए नित संहारी
सबके दुर्गुण बाँच रहे हम, स्वयं को नहीं
खंगाला
प्रतिदिन मन का वही प्रलाप, बुद्धि बनी भिखारी
कोई रावण नाभि तो खोजो कोई तीर चलाया जाए
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जाए
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2-नुमाइश ( कविता)
सवेरे की ही खिली नन्ही कोंपलों पर
चित्र ; गूगल से साभार |
गरजदार ओलों की तेज़ बारिश हुई
जो बुरकता रहा नमक, रिसते जख्मों पर
उसी के साथ नमक-हलाली की सिफारिश हुई
दुश्मन की तरह मिलता रहा जो हर शाम
उसी के साथ रात गुजारने की साजिश हुई
चुप्पी को समझा ही नहीं कभी जो शख़्स
उसी के सामने दर्दे -दिल गाने की ख्वाहिश हुई
दिन-रात मरहम लगाता ही रहा उसके घावों पर
जिसके हंगामे से उसकी चोटों की नुमाइश हुई
-0-
दोनों कविताएँ बेहतरीन। सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत कुछ सोचने को मजबूर करती कविताएँ...। इन सार्थक रचनाओं के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
ReplyDeleteआज के सामाजिक व्यवस्था पर बहुत ही बेहतरीन और सार्थक सृजन ।
ReplyDeleteआपकी सोच और लेखनी को नमन। हार्दिक बधाई
बढिया कविताएं दोनो
ReplyDeleteसुंदर कविताएँ। बहुत कुछ कह गईं। बधाई।
ReplyDeleteनि:शब्द
ReplyDeleteगहरी सोच और सच को कह गई दोनों कविताएं । बधाई कविताजी
ReplyDeleteगहरा अर्थ समेटे हुए सार्थक रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई प्रिय कविता जी ...विजय दसवीं की हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteआप सभी का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteबहुत खूब....आ.कविता जी....अलग अंदाज...
ReplyDeletevah bahut khoob.
ReplyDeleteदोनों रचना के भाव बहुत गहरे और सामयिक हैं. बधाई कविता जी.
ReplyDeleteबेहतरीन रचनाएं... कविता जी हार्दिक बधाई।
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ReplyDeleteदोनों कविताएँ बेहतरीन!!
विराट बाहर का रावण, भीतर का उससे भी भारी
असंख्य शीश हैं, पग-पग पर, बने हुए नित संहारी
सबके दुर्गुण बाँच रहे हम, स्वयं को नहीं खंगाला
बहुत खूब!!
हार्दिक बधाई कविता जी!!
आप सभी का हार्दिक आभार। भविष्य में भी स्नेह बनाये रखियेगा।
ReplyDeleteसामयिक , सार्थक , बहुत गहन रचनाएँ ...हार्दिक बधाई कविता जी !
ReplyDeleteआप सभी का हार्दिक आभार।
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