पथ के साथी

Saturday, February 11, 2023

1287-शुभ्रा मिश्रा की कविताएँ

शुभ्रा मिश्रा 


 
1. निर्वासन

  1. निर्वासन

कवियों लेखकों के साये में

पली- बढ़ी मैं

कल इनसे अलग होकर जीऊँ

सोचकर ही कॉंप जाती हूँ मैं

अज्ञेय और राकेश को

कीट्स और वर्ड्सवर्थ को

सब को छोड़ कर कल जाना है मुझे

वैसे एक- न - एक दिन तो सबको जाना है

पर वह जाना निर्वासन तो नहीं होता

जाने कौन देश मुझे भेजा जाए

जाने कौन- सा फूल वहाँ खिलता हो

वहाँ तो लोग लूसी को जानते नहीं

वे तो जाने कब से भूखे हैं

सुबह से रात तक खाते हैं

यह उन्होंने ही कहा है

और चिथड़ों लिपटे हुए

जाने कब से उनके शरीर

जिसके तार- तार को सीना होगा मुझे

वर्षों के संघर्ष से अनजान

मेरे सपनों को क्या जाने

आधी उम्र तो गुजर गई

आधी उम्र संघर्ष करूँ

तो पुनः शायद पा जाऊँ

अपने तरुवर को

पर वह पाना कैसा पाना होगा

जब आखिरी साँस टूटने को

बाकी हो

मैं जान गई

कल की विदा आखिरी विदा होगी

अब कभी वापसी नहीं होगी

अब तो मैं निर्वासित हो चली

   -0-        

 

2. बोनसाई स्त्री!

 

तुम्हें हरा भी रहना है

फूल भी देना है

और फल भी

 

पर

तुम्हें बढ़ना नहीं है

मेरे समक्ष

 

बोनसाई!

या फिर स्त्री!

या सिर्फ स्त्री!

 

विस्तृत आकाश था मेरा

पंखो में थी 

उड़ते रहने की जिद्द,

अथाह थी धरती मेरी

 

कदम थक जायें

पर ना थका 

कभी उसका  कलेजा !

 

मुझे उखाड़ने में 

बरसों लगा उन्हें

पर बना न सके 

वे मुझे बोनसाई!

 

अभी भी जड़ें 

मेरी जिंदा हैं 

कलेजे में उसके

मेरे पंखों में वह 

चुपके से भर जाता है 

सातो रंग!

 

मैं खड़ी हूँ 

तुम्हारे समक्ष ,

दिन ब दिन ऊपर 

उठ भी रही हूँ

 

मेरी सशक्त 

जड़ें तोड़ चुकी हैं

तुम्हारे दंभ और 

अक्खड़पन के 

विषाक्त  गमले को

 

मैं फूल भी दूँगी

मैं फल भी दूँगी

और बड़े होकर 

तुम्हें छाया भी दूँगी!

 

मेरे मन ने 

यह कभी सोचा भी नहीं

कि तुम्हें

बोनसाई होते हुए देखूँ

 

पर आज.. 

 

जब मैं तुम्हें देखती हूँ

तुम स्वयं में 

एक बोनसाई ही नजर आते हो!

 

सोच से!

संस्कार से!

और

व्यवहार से भी!

 

 

3.मातृभूमि के सपूत

 

ऐ मेरी भारत माँ के सपूतो!

जागो अब तो जागो

माँ का हृदय छलनी हो रहा है

आज लहूलुहान पड़ी है माँ

अपने ही बच्चों से हार रही माँ

पूछती है माँ

कब से रक्त सफेद हुआ तुम्हारा?

तुमने तो शांति, त्याग और हरियाली का

दिया था वचन मुझे

वह शांति लौटा दो मुझे

जिन माताओं ने त्याग दिया 

संतानों को मेरे  लिए

जिन बहनों ने बाँधकर राखी

भेज दिया उन्हें मेरे लिए

जिन औरतों ने लगा दिया दाँव पर

सिंदूर अपना  

जिन बच्चों ने नहीं खेला कभी

कंधों पर पिता के अपने

वह त्याग उन्हें लौटा दो

वह हरी भरी मेरी वसुंधरा

जिसके लिए लगा दी जान अपनी

लगा दी सारी अपनी थाती

फिर भी रिक्त है मेरा वह सपूत

आज भी भूखे सोते

बच्चे उसके

नहीं वस्त्र है उनके तन पर

फिर भी वह करता है सेवा

नहीं छोड़ता मुझे अकेला 

वह हरियाली बहुत भाती मुझे

क्या सच में तेरा खून हो गया पानी!!

लौटा दे तू मेरी हरियाली

माँ से अगर तूने किया विश्वासघात 

फिर तो तीनों लोकों में देगा नहीं कोई तेरा साथ

मत भूल कि मैं हूँ तो तू है

अगर मैं नहीं तो तू कहाँ

पहचान है मुझसे तेरी

अभिमान है मुझसे तेरा

आज तुम सब एक होकर 

कर मेरा सपना साकार

त्याग, शांति और हरियाली

यही है जीवन का मूलाधार

व्यर्थ न होगा जीवन तेरा

माँ का आशीष रहेगा सदा

मत भटको  ना ही उलझो

माँ का आँचल में ही तो स्वर्ग है तेरा

जग में सदैव तू अमर रहेगा

माँ की रक्षा का वचन ना भूलो

यह धरती करेगी जयगान तेरा

मैं मात्र एक भूखण्ड नहीं

मैं माँ तुम्हारी हूँ

मैं माँ तुम्हारी हूँ

 

4-गाँठ

 

जब मैं वहाँ गई 

माई के सपनों को थोड़ा बुनने के लिए 

कुछ  गाँठें जो वजह - बेवजह बन गई थीं

उन्हें खोलने के लिए 

कुछ रिसते घावों पर मरहम लगाने के लिए 

तो माई की जीवन-धारा

उनका बेटा ! मुझे कहीं नहीं मिला

मेरा भाई तो वर्षों से मिला ही नहीं 

छद्मवेषी है वह

वह है तो केवल एक पुरुष 

जो किसी स्त्री के बनाए गए 

तिलिस्मी जाल में है मगन

एक बेहद ही बेवकूफ पिता भी है वह

माई हाशिए पर खड़ी थी

अनगिनत प्रश्नों के बोझ से दबी

मैं भी थी

प्रश्नचिह्न मेरे ऊपर भी था

एक साथ न जाने कितनी उँगलियाँ

न जाने कितनी आँखें                                 

मुझे और माई को घूर रहे थे

मैं हाशिए से बाहर थी

और अब माई भी बाहर  है

अब उसके सतरंगी सपनों के रंग 

सफेद हो गए हैं

ज्यादातर तो स्याह ही हैं

माई अब सपने नहीं बुनती

मैं अब  माई को उसी के अस्तित्व से परिचय कराती रहती हूँ

अपने लिए सपने बुनना सिखाती हूँ

अपनी सखियों के साथ बैठकर 

रंग उड़ेलना सिखाती हूँ

माई हँसती है                                           

माई शिशु बन जाती है

सखियों के साथ जोर- जोर से हँसती है

खाने की खुशबू माई को अच्छी लगने लगी है

रोज नई -नई चीजें बताती है

बताती है कि कैसे उसकी दादी और नानी

उसके मनपसंद की चीजें बनाती थी

मेरे हाथों में अपनी दादी - नानी को तलाशती है

कभी अपनी माई को तो कभी अपने बाबूजी को

कई बार मेरे हाथों में

मेरी आँखो में 

मेरी बातों में 

मेरे पिता को तलाशती रहती है

पर अब वह नहीं खोजती अपना बेटा

और मैं भी नहीं तलाशती अपना भाई

-0-


7 comments:

  1. बहुत ही भावपूर्ण कविताएँ।

    बोनसाई और गाँठ बेहद मार्मिक।

    हार्दिक बधाई आदरणीया
    सादर

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  2. सभी कविताएँ सशक्त,बोनसाई और गाँठ गहरा प्रभाव छोड़ रही हैं।बधाई शुभ्रा मिश्रा जी।

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  3. यथार्थ से परिपूर्ण.. बहुत शानदार प्रस्तुति.. हार्दिक बधाई 🌹🌹

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  4. बेहद प्रभावी कविताएँ! विशेषकर 'बोन्साई' एवं 'गाँठ' ... बहुत बढ़िया!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  5. बहुत ही शानदार रचनाएं , बधाई आपको।
    सादर
    सुरभि डागर

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  6. शुभ्रा जी की सभी कवितायें सशक्त हैं | विशेषकर 'बोंजाई' कविता ने विशेष छाप छोडी | बधाई हो | सविता अग्रवाल 'सवि'

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  7. शुभ्रा जी, आपकी सारी रचनाओं ने संवेदना के तार को अलग-अलग स्तर पर झंकृत किया है, बहुत बधाई

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