लघुकथा में सामाजिक बोध
जन जीवन में उठने वाली तरंगों को रूपायित करना, किसी भी विधा की शक्ति का अहसास कराता है। लघुकथा के लिए हम लम्बी–चौड़ी बातें न करके इसके विषय क्षेत्र पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि यह विधा समाज के दु:ख–दर्द से अन्य विधाओं की तरह ही जुड़ी है। काल के निरन्तर प्रवाह में परम्परा उतनी ही स्वीकार्य हो सकती है जितनी समसामयिक हो, जितनी भावी स्थितियों के लिए उत्तरदायी बन सकती हो। अतीत में जो समस्याएँ थीं, वे ज्यों की त्यों वर्तमान फलक पर नहीं है। कुछ समस्याओं के समाधान खोजे गए हैं तो कुछ नई समस्याएँ भी दिन प्रतिदिन उपजती जा रही हैं। अतीत के सन्दर्भ कभी भटकाव में राह सुझा रहे हैं ,तो कुछ ऐसे भी हैं जो नया भटकाव पैदा कर रहे है। चाहे शिक्षा हो चाहे राजनीति, चाहे व्यक्तिगत जीवन हो, चाहे व्यक्ति से आगे बढ़कर पूरे मानव समाज को समेटने की आतुरता, चाहे चिन्तन हो चाहे कार्यरूप; सभी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। ये परिवर्तन शुभ संकेत एवं अपशकुन दोनों ही रूपों में हैं। लघुकथा ने शुभ संकेत देकर जहाँ आगे बढ़ने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है, वहाँ उन अपशकुनों से भी हमें सावधान किया है; जो सामाजिक संवेदना के लिए भयावह हैं।
लघुकथा के क्षेत्र में ऐसे लेखकों की लम्बी सूची है; जिन्होंने सार्थक रचनाओं का सर्जन किया है। इनमें विष्णु प्रभाकर, रमेश बतरा, बलराम, सतीशराज पुष्करणा जगदीश कश्यप, मधुदीप मधुकांत, सुकेश साहनी, अंजना अनिल,शकुन्तला किरण, प्रतिमा श्रीवास्तव,अशोक भाटिया, रूपदेवगुण,शंकरपुणताम्बेकर, उपेन्द्र प्रसाद राय, श्यामसुन्दर अग्रवाल डा0 श्यामसुन्दर दीप्ति, सुभाष नीरव ,युगल ,कृष्णानन्द कृष्ण ,बलराम अग्रवाल आदि प्रमुख हैं।
लघुकथाओं में नारी के विविध रूपों का चित्रण किया गया है। माँ,बहिन,प्रेमिका माँ,बहिन,प्रेमिका,मित्र,पतिता,शोषिता,बेटी, परिवार के लिए रोटी का जुगाड़ करती संघर्षरता ,संतान–पति–प्रेमी आदि द्वारा उपेक्षिता एवं वंचिता। रिश्तों के दायरे को नकारती गुण–दोष की प्रतिमा किन्तु सहजता का जीवन जीने वाली समाज के उपालम्भ सहने वाली। प्रेम करने वाली आनन्दी (कायर: कमलेश भारतीय) से राजीव की यह भावना जैसे ही प्रकट होती है, वह उसकी कठोर भर्त्सना करती है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘मृत्युबोध’ में बूढ़ी सुमित्रा के साथ ठण्डी पथराई पारिवारिक संवेदना केवल मृत्यु का इंतजार कर सकती है, दूसरी ओर ‘गुठलियाँ’ की बिट्टो और बूढ़ी माँ के लिए उपेक्षा को सींचने वाली भी नारी ही है। ‘हिस्से का दूध’ (मधुदीप) की पत्नी तमाम अभावों के बीच पारिवारिक सम्बन्धों की उष्मा बनाए हुए है। ‘जगमगाहट’ (रूपदेवगुण) की नौकरी पेशा युवती हर समय वासना भरी नज़रों से अपना अस्तित्व बचाए रखने के अन्तर्द्वन्द्व को झेलती रहती है। यद्यपि उसकी आशंका निराधार सिद्ध होती है तो भी दफ्तरों में हो रहे यौन शोषण को नकारा नहीं जा सकता है। ‘विश्वास’ (पुष्करणा) की पत्नी को अपने पति की लम्पटता का पता नहीं । वह उस पर इतना विश्वास करती है कि उसके हाथ से जहर भी पी सकती है।
डॉ. कमल चोपड़ा ने ‘सीधी बात’ में लड़की की सामाजिक उपेक्षा को रेखांकित किया है तो ‘खेल’ में देहशोषण की त्रासद स्थितियों को चित्रित किया है। ‘पाप और प्रायश्चित’ (बलराम) में उन तथाकथित धार्मिक विधि निषेधों पर उंगली उठाई है जिनके कारण प्यार और मातृत्व को पाप मानने की भावना पनप सकती है। ‘लड़की (डॉ.उपेन्द्र प्रसाद राय) में विभिन्न स्तरों पर शोषित एक लड़की की करुण कथा है। लड़की को उपभोग की सामग्री समझने वालों के मुँह पर एक करारा तमाचाहै । ‘नारी’ में नारी को भोग्या मानने वाले रुग्ण संस्कारों पर चोट की है। डॉ.शकुन्तला किरण ने ‘रूपरेखा’ और ‘मौखिक परीक्षा’ में छात्राओं के शोषण के जिम्मेदार शिक्षकों पर चोट की है। ‘तार’ में प्रेम की गहराई को, रिश्तों के अपरिभाषित सूत्रों को व्यंजित किया है। सारे सिद्धान्त इसकी गूँज के सामने मूक हो जाने के लिए बाध्य हैं।
धर्म का स्थान कट्टरता और उग्र साम्प्रदायिकता ने ले लिया है। राजनीति इन दोनों में फर्क नहीं करती। वह स्वार्थ पूर्ति के लिए किसी भी विषबेल को मानवमात्र की आवश्यकता कहकर रोप सकती है। जनमानस को दूषित करने वाले लोग असहिष्णुता को बढ़ाने वाले अवसर तलाशते रहते हैं। घोर साम्प्रदायिकता का घिनौना जानवर जब हमारे मन को विकृति की ओर ले जाता है, तभी नफरत फैलती है। हम इस जानवर को न मारकर, उस बेचारे सीधे–सादे आदमी को कत्ल करने में इतिश्री मान बैठते हैं, जो किसी विशेष वर्ग से जुड़ा है। रमेश बतरा की लघुकथा ‘सूअर’ बड़ी सादगी से साम्प्रदायिक प्रश्नों का उत्तर देती है। ‘‘मस्जिद में सूअर घुस आया’’ का उत्तर करवट लेकर फिर से सोता आदमी देता है–‘‘यहाँ क्या कर रहे हो?.....जाकर सूअर को मारो न!’’ ‘छोनू’ (कमल चोपड़ा) का बच्चा जब साम्प्रदायिकता का शिकार होने लगता है तो भयाक्रांत हो उठता है–‘‘मैं छिक्ख–छुक्ख नई ऊँ...मैं तो छोनू हूँ...।’’ न जाने कितने निरीह सोनू अन्धी सुरंग में ढकेले जा रहे हैं। साम्प्रदायिक विद्वेष के मूल में प्राय: भय और अफवाहें होती है। ‘आइसबर्ग’ (सुकेश साहनी) में भीड़ के इस मनोविज्ञान का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। उसकी शहादत (जगदीश कश्यप) ‘आदमी’ (बलराम) दिशा (पुष्करणा) भी प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं।
जातिवाद ने साम्प्रदायिकता की तरह ही घृणा का प्रसार किया। धनी–निर्धन, धर्म–विधर्म के बीच पिसते लोग अब ऊँच–नीच के दायरे में बँटकर उपेक्षा,शत्रुता का प्रतिशोध आदि अमानवीय चिन्तन से विभाजित होने लगे हैं। शोषित ओर पीड़ित की व्यथा को लघुकथा ने स्वर प्रदान किया है। ‘पहला आश्चर्य’ (चोपड़ा) गरीबी की करुण पीड़ा को व्यक्त करती है तो आँधी (चित्रेश) में गरीब बनाने की तिकड़म का कड़ा प्रतिरोध उभरा है। ‘मृगजल’ (बलराम) में भविष्य के असंभावित सुख की कल्पना में खोया वर्तमान में दुर्दशाग्रस्त जीवन जीने वाला कृष्ण का परिवार है। ‘प्रश्नहीन’ (कमलेश भट्ट कमल) में बेरोजगारी की छटपटाहट, बैकुंठ लाभ (कुमार नरेन्द्र) में दिहाड़ी की विवशता में घुटता सामाजिक दायित्व ‘पेट पर लात’ (विक्रम सोनी) में मजदूर की दयनीय दशा का चित्रण किया गया है।
हमारे समाज में बहुत सारी विद्रूपताएँ हैं। हम उन्हें देखकर सतही तौर पर हँस सकते हें परन्तु गहराई से सोचें तो छटपटाहट होती है। हमारे आसपास के बहुत सारे चेहरों, परिस्थितियों एवं सिद्धान्तों के खोखले आदर्श का मिथक टूटता नज़र आता है। शिक्षा–जगत को ही लेँ–अभिभावक की जल्दबाजी बच्चे के बचपन को छीन ले रही है। ‘सपना’ में (अशोक भाटिया) ने इस स्थिति पर करारा व्यंग्य किया है। चिडि़याघर (श्यामसुन्दर अग्रवाल) में स्कूलों की दुर्दशा, बैल (साहनी) में बाल मानसिकता को न समझ पाने की भूल, ‘कितना बड़ा मूल्य’ (डा0राय) में अनुशासन के ढोंग की ओट में नन्हे–मुन्नों की कुचली सहज भावनाओं की प्रतिध्वनि मन पर खरोंच छोड़ जाती है।
आर्थिक और सांस्कृतिक दबाव में आकर मनुष्य का स्वार्थ और प्रबल हुआ है। यही कारण है कि पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट कम होने लगी है। कमल चोपड़ा ने ।माँ पराई लघुकथाओं में इस टूटन को उजागर किया है तो ‘अंत तक’ में उसी टूटन को जोड़ने का प्रयास किया है। बलराम,शंकर पुणताम्बेकर और डा0 राय की लघुकथाओं में राजनैतिक छल- प्रपंचों पर कड़ा प्रहार किया गया है।
इस प्रकार लघुकथा के बहुआयामी विषय चयन के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह विधा सामाजिक बोध से अन्य विधाओं की तरह अन्तरंगता से जुड़ी है।